Book Title: Rishabhdev Ek Parishilan Author(s): Devendramuni Publisher: Sanmati Gyan Pith AgraPage 15
________________ ( १४ ) कैसा हाथी ? 'मैं बड़ा हूँ, अपने से छोटे बन्धुओं को कैसे वन्दन करू" -- यह अहङ्कार का हाथी । इसी हाथी पर से नीचे उतरना है । बाहुबली के चिन्तन ने अहं से निरहं की ओर मोड़ लिया और ज्योंही वंदन के लिए कदम उठाया किकेवल ज्ञान का महाप्रकाश जगमगा उठा। उक्त उदाहरण से क्या ध्वनित होता है ? यही कि भगवान् ऋषभदेव साधना के केवल बाह्य परिवेश तक ही प्रतिबद्ध नहीं थे । उनकी साधनाविषयक प्रतिबद्धता बाहर की नहीं, अन्दर की थी। उनकी साधना का मुख्य आधार तन नहीं, मन था । मन भी क्या, अन्तश्चैतन्य था । और भगवान् का यह दिव्य दर्शन जैनसाधना का बीज मंत्र हो गया । आदिकाल से ही जैन दर्शन तन का नहीं, मन का दर्शन है, अन्तश्चैतन्य का दर्शन है । वह साधना के बाह्य पक्ष को स्वीकारता है अवश्य, परन्तु अमुक सीमा तक ही । बाह्य सान्त है, अन्तर ही अनन्त है । अतः अनन्त की उपलब्धि बाहर में नहीं, अन्दर में है । जब-जब साधक बाहर भटकता है, बाहर को ही सब कुछ मान बैठता है, तब-तब भगवान् ऋषभदेव के जीवन-प्रसङ्ग साधक को अन्दर की ओर उन्मुख करते हैं, हठ योग से सहज योग की ओर अग्रसर करते हैं । भगवान् ऋषभदेव की निर्मल धर्मचेतना आज की भाषा में कहे जाने वाले पन्थों - मतों-सम्प्रदायों से सर्वथा अतीत थी। उनका सत्य इन सब क्षुद्र परिवेशों में बद्ध नहीं था । जब कभी प्रसंग आया, उन्होंने सत्य के इस मर्म को स्पष्ट किया है --- बिना किसी छिपाव और दुराव के । राजकुमार मरीचि भगवान् के पास आर्हती दीक्षा ग्रहण कर लेता है, पर समय पर ठीक तरह साथ नहीं पाता है । तितिक्षा की कमी, परीषहों के आक्रमण से विचलित हो गया; तो पथ- च्युत हो गया, परिव्राजक हो गया । इस पर, सम्भव है, और सबने धिक्कारा हो, परन्तु भगवान् सर्वतोभावेन तटस्थ रहे । मरीचि जैन श्रमण परम्परा के विपरीत परिव्राजक का बाना लिए समवसरण के द्वार पर बैठा रहता, परन्तु इधर से कोई ननुनच नहीं । इतना ही नहीं, एक बार भरत चक्रवर्ती के प्रश्न के समाधान में घोषणा की कि मरीचि वर्तमान कालचक्र का अन्तिम तीर्थङ्कर होगा । श्रमण परम्परा से उत्प्रव्रजित व्यक्ति के लिए भगवान् की यह घोषणा एक गम्भीर अर्थ की ओर संकेत करती है वेष और पन्य की सीमाएँ सत्य की सीमा को काट नहीं सकतीं । सत्य क्षीरसागर के जल की भाँति सदा निर्मल एवं मधुर होता है, चाहे वह किसी भी पात्र में हो, और जब भी कभी हो । वेष और पन्थ की सीमाओं को लांघ कर व्यक्ति में आज नहीं, तो कल अभिव्यक्त होने वाले सत्य का इस प्रकार उद्घाटन करना, भगवान् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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