Book Title: Rajkukmar Shrenik Diwakar Chitrakatha 016 Author(s): Devebhdra Muni, Shreechand Surana Publisher: Diwakar Prakashan View full book textPage 6
________________ राजकुमार श्रेणिक यमदण्ड ने हाथ जोड़कर कहा तिलकवती ने प्रसेनजित की इतनी सेवा की कि वह | उसके रुप पर ही नहीं, गुणों पर भी मुग्ध हो गया। प्रातः काल राजा प्रसेनजित ने यमदण्ड से कहा "महाराज ! हमारे पास ऐसा है भीलराज मुझे आपकी ही क्या जो आपको भेंट कर कन्या तिलकवती का सकें, फिर भी जो है वह सब / हाथ चाहिए। आपके लिए तैयार है। (भीलराज ! आपने अतिथि-सेवा करके मुझे प्रसन्न ही नहीं; मुग्ध भी कर दिया, परन्तु मैं आपको कुछ दै. इससे पहले आपसे कुछ माँगना चाहता हूँ। यह सुनकर यमदण्ड सोच में पड़ गया। राजा ने कहा | फिर यमदण्ड ऊँचे आकाश की ओर देखते हुए बोला किस विचार में पड़ गये । महाराज ! यह कन्या ही मेरी भीलराज ! क्या मुझे कन्या Mसब कुछ है, मैंने प्रण ले रखा रत्न नहीं देना चाहते?/ है! मैं उसे ही कन्या रत्न दूंगा जो मेरा प्रण पूरा करेगा ... महाराज! मेरा प्रण है, मैं अपनी प्राणों से प्यारी इस कन्या का विवाह उसी व्यक्ति के साथ करूँगा जो इसकी होने वाली सन्तान को अपना उत्तराधिकारी बनायेगा... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.ogPage Navigation
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