Book Title: Puranome Jain Dharm
Author(s): Charanprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 19
________________ पाठक, श्रीकान्त तलगेरी, एस. कल्याणरामन्, बी. बी. चक्रवर्ती, जार्ज फ्यूअरस्टीन आदि विद्वान् तो यह लिखते ही रहे हैं कि वेदकालीन सरस्वती घाटी सभ्यता सिंधु घाटी सभ्यता से पहले भी थी, दोनों में कोई संघर्ष या ध्वंस नहीं हुआ, नदियों का प्राकृतिक मार्ग बदलने से परिवर्तन हुए आदि, किन्तु न्यू मैक्सिको (अमेरिका) के डेविड फ्रावले ने सप्रमाण कुछ ग्रन्थ भी लिखे हैं (द मिथ आफ आर्यन इनवेज़न ऑफ इंडिया, 1995) जिनमें यह स्पष्ट किया है कि नवीनतम शोधों के अनुसार जो सारस्वत वेद सभ्यता सिंधु घाटी सभ्यता से प्राचीन सिद्ध हुई है, उसके आधार पर छात्रों को पढ़ाये जाने वाले इतिहास में यह उल्लेख होना अब वांछनीय. हो गया है। इस प्रकार नये शोधों तथा स्थापनाओं के फलस्वरूप काल निर्धारण बदल भी सकते हैं। शोध विद्वानों के अन्तिम निर्णय के बाद ही उसे तत्त्वतः स्वीकृत किया जाता है। * तात्पर्य यह है कि कालक्रम की पूर्वापरता इतिहास के शोध का विषय ही रहना चाहिए, पूर्वग्रहों पर आधारित नहीं होनी चाहिए। यही वस्तुनिष्ठ शोध दृष्टि क प्रमाण होता है। हर्ष की बात है कि इस ग्रन्थ में विदुषी लेखिका ने शोधपरक दृष्टि रखी है तथा व्यापक फलक पर पुराणों, जैन ग्रन्थों, अभिनन्दन ग्रन्थों तथा शोध लेख संकलनों से संदर्भ और उद्धरण देते हुए अपनी स्थापनाओं के प्रमाण प्रस्तुत कि हैं। कालक्रम पर कुछ अभिकथन प्रथम अध्याय (जैन धर्म का इतिहास) और उपसंह में अवश्य मिलते हैं जिनमें लेखिका ने कुछ ऐसे सन्दर्भ दिये हैं कि ऋषभदेव क उल्लेख वेदों में भी है। “वातरशना मुनयः” आदि उक्तियों से वेदों में श्रमण संस्कार के संकेत मिलने की बात बहुधा कही भी जाती है। राजस्थान संस्कृत अकादमी द्वारा (जिसका मैं भी कुछ समय तक अध्यक्ष रहा) जयपुर में 19-20 मार्च, 1991 को श्रमण संस्कृति पर यहाँ के उच्चस्तरीय अध्ययन अनुसंधान संस्थान के तत्त्वावधान में विद्वानों की एक संगोष्ठी आयोजित की गई थी, जिसमें श्रमण संस्कृति के विभिन्न पक्षों पर तो गहन विमर्श और शोधपत्र पठन हुए ही, वैदिक और जैन संस्कृतियों के पारस्परिक संवाद सूत्रों पर भी अधिकारी विद्वानों ने लिखा। स्व. डॉ. सुधीर कुमार गुप्त (वेदमनीषी) का अभिमत तो यह था कि वेदकाल में श्रमण संस्कृति के तत्त्व अपरिज्ञात थे, जबकि डॉ. प्रेमचन्द जैन ने 'मुनयो वातरशनाः' आदि उद्धृत कर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया था कि ये श्रमणों के वर्णन हैं। इस देश में विद्वानों को अपने-अपने मत निर्बाध रूप से रखने की सदा स्वतन्त्रता रही है। यह कहते हुए मैंने तथा अन्य अनेक विद्वानों ने यह निर्विवाद रूप (xv)

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