________________ से माना कि किसी न किसी रूप में इन दोनों धाराओं में पारस्परिक संवाद, समन्वय प्रत्येक युग में होता रहा है। इस संगोष्ठी के शोध लेख 'श्रमण संस्कृति' शीर्षक से ग्रन्थाकार में संस्कृत अकादमी से प्रकाशित हुए हैं, जिनमें मेरी भूमिका भी सम्मिलित है। इसके अतिरिक्त अकादमी ने “सनातन एवं जैन पुराणों में मानव कल्याण की दृष्टि" विषय पर भी एक विद्वत्संगम आयोजित किया (जिसके शोध लेख भी मेरे अध्यक्षता काल में इसी शीर्षक से 1996 में एक ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित हुए), जिसमें यह तथ्य उभरकर आया कि दोनों संस्कृतियों के चिरन्तन सह अस्तित्व के फलस्वरूप इस देश के मानव समुदाय का जो हित हुआ है, वही इन दोनों संस्कृतियों का वास्तविक उद्देश्य था और है। शुभाशंसा–इन दोनों संस्कृतियों के पारस्परिक प्रभावों, अन्तः क्रियाओं, सिद्धान्तों की समानताओं तथा संवादों एवं समन्वयों का आकलन करने का कालोचित सत्कार्य करने वाला यह ग्रन्थ इसी प्रकार के अध्ययनों की एक बहुमूल्य कड़ी है, अतः इसका स्वागत सभी प्रकार के प्रबुद्ध पाठकों और जिज्ञासुओं, विद्वानों और विद्यार्थियों सभी में होगा, इसमें सन्देह नहीं है। व्यापक अध्ययन और अथक मीमांसा दृष्टि के साथ इस शोध ग्रन्थ के प्रणयन के लिए विदुषी डॉ. चरणप्रभा साध्वी प्रभूत बधाइयों की पात्र हैं तथा उत्तमोत्तम ग्रन्थ रत्नों के प्रकाशन द्वारा सुदीर्घ काल से समाज को अमूल्य वाङ्मय प्रदान कर अपना चिरस्मरणीय स्थान बनाने वाली संस्था प्राकृत भारती अकादमी, उसके यशस्वी अध्यक्ष श्री देवेन्द्र राज मेहता और कर्मठ निदेशक महोपाध्याय श्री विनयसागर भी शतशः साधुवादों के पात्र हैं कि उनकी पारखी दृष्टि ने इस शोधग्रन्थ को प्रकाशन के लिए चुना और वाङ्मय जगत् में प्रस्तुत किया। इस प्रकार के अनुसन्धानात्मक स्तरीय ग्रन्थों का प्रसार ऐसे अनेक अन्य विमर्शों और ग्रन्थों के प्रादुर्भाव को प्रेरित करता है जो हमारी सांस्कृतिक निधि का विवेचन अगली पीढ़ी के हितार्थ प्रस्तुत कर सकें, इसलिए भी यह प्रकाशन सर्वथा स्वागतार्थ है। देवर्षि कलानाथ शास्त्री (राष्ट्रपति सम्मानित संस्कृत विद्वान्) मञ्जुनाथ स्मृति संस्थान, भूतपूर्व अध्यक्ष, राजस्थान संस्कृत अकादमी सी/८ पृथ्वीराज रोड, तथा निदेशक, संस्कृत शिक्षा एवं भाषा विभाग, जयपुर राजस्थान सरकार (xvi)