________________ तुलनात्मक अध्ययन किया है। लेखिका का निष्कर्ष है कि पुराण जैनधर्म के सिद्धान्तों से अवगत हैं और ‘आर्हत् धर्म' आदि संदर्भो से उनका परिचय प्रमाणित करते हैं। पुराणों ने आत्मतत्त्व का जो विवेचन किया है, उसमें जैन सिद्धान्तों की मान्यता से क्या समानता है, कर्म सिद्धान्त की जिस प्रकार जैनागमों में व्याख्या है उससे किस प्रकार पौराणिक मान्यताएँ भी मेल खाती हैं, अपरिग्रह, सत्य, तप, दान आदि सामान्य आचारों की मान्यताएँ किस प्रकार दोनों में समान हैं (यह सामान्य आचार वाले अध्याय में बतलाया गया है), श्रमणों में श्रावकों और संन्यासियों के जो विशिष्ट आचार वर्णित हैं, उसी प्रकार के आचार पुराणों में भी गृहस्थों, योगियों, संन्यासियों आदि के लिए किस रूप में पाए जाते हैं, (यह विशेष आचार वाले अध्याय में बताया गया है), पुराणों का भुवनकोश और जैन भुवनकोश किस प्रकार समान है, ईश्वर की अवधारणा दोनों धाराओं में किस-किस रूप में रही है और किस प्रकार उनमें समान सूत्र खोजे जा सकते हैं—यह सब विभिन्न अध्यायों में सप्रमाण और सुबोध शैली में विवेचित है जो निश्चित ही अध्येताओं को नवीन दिशा बोध देगा। ऐसे अध्ययनों में जो विषयिनिष्ठ या वैयक्तिक पूर्वाग्रहजन्य रुझान कभी-कभी दृष्टिगोचर हो जाते हैं, उनका प्रमुख कारण होता है लेखक का यह सिद्ध करने का. प्रयास कि अमुक सिद्धान्त में जो समानता है, उसका कारण है अमुक धर्म पर अमुक धर्म का प्रभाव। विदुषी लेखिका इस प्रकार की स्थापनाओं से यथाशक्य बचकर इन दो धाराओं में समान सूत्र खोजने पर.ही प्रमुखतः अपनी शोध दृष्टि रखती है, यह हर्षप्रद है। ऐतिहासिक कालक्रम के संकेत देते समय भी उनका अभिगम कुछ इस प्रकार का प्रतीत होता है कि वैदिक वाङ्मय के काल में जिस प्रकार की मान्यताएँ थीं, उनका प्रतिफलन जैन मान्यताओं में किस प्रकार हुआ और पुराणों में वे मान्यताएँ किस प्रकार प्रतिबिम्बित मिलती हैं। कालक्रम से यही पौर्वापर्य मोटे रूप में वे मानकर चलती हैं। इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह स्वाभाविक है कि आप जब दर्पण में देखकर अपने आप से और किसी की तुलना करते हैं तो यही कहेंगे कि अमुक व्यक्ति भी मेरे जैसा ही लगता है, उसकी नाक या आँख भी मेरी जैसी है बजाय यह कहने के कि मैं उस जैसा लगता हूँ, मेरी नाक या आँख उस जैसी है। ... अब तक हुए शोध-ऐसा कहीं-कहीं ही हुआ है कि यह स्थापित करने का प्रयास दिखलाई दे कि वैदिक साहित्य बाद में बना, श्रमण परंपरा पहले थी। ‘उपसंहार' (xiii)