________________ पूर्वाग्रहमुक्त होंगे, यह माना जाता रहा / तभी तो विदेशियों के अध्ययनों, शोधलेखों और ग्रन्थों को बहुधा निष्पक्षता के नाम पर तरजीह दी जाती रही। . . . साध्वी चरणप्रभा जी का यह शोधग्रन्थं विश्वविद्यालय की शोधोपाधि के लिए स्वीकृत है। अतः निश्चित ही इसमें तथ्यपरकता और वस्तुनिष्ठता होगी, यह मानकर चला जा सकता है। हमने ऊपर जो धारणा व्यक्त की है कि विभिन्न चिन्तन धाराओं में परस्पर अन्तःक्रिया (इंटरएक्शन) आदान-प्रदान और प्रभावों का ग्रहण-प्रतिग्रहण अवश्य होता रहा होगा, उसी की पुष्टि विदुषी लेखिका ने उपसंहार (पृ. 263) में स्पष्ट रूप से की है। पुराण-परम्परा यह भी अत्यन्त सन्तोष का विषय है कि सनातन पुराणों का तथा उनके विवेचक ग्रन्थों का गहन अनुशीलन कर लेखिका ने उनकी दार्शनिक मान्यताओं, आचार देशनाओं और भौगोलिक तथा ऐतिहासिक तथ्यों की जैनागम की मान्यताओं, जैन भुवनकोश की धारणाओं तथा आचार संहिताओं के साथ एक-एक करके बहुत तथ्यपूर्ण तुलना की है। सनातन पुराण वाङ्मय जितना विस्तृत है, उतना ही वैविध्यपूर्ण हैं उसके बारे में विद्वानों की मान्यताएँ और धारणाएँ। विदुषी लेखिका ने सामान्य ऐतिहासिक आकलन करते हुए उन्हें वैदिक संस्कृति की मुख्य धारा का अंग माना है जो ठीक भी है क्योंकि आर्य संस्कृति और श्रमण संस्कृति की दो धाराओं में वाङ्मय का द्विभाजन करें तो यही वर्गीकरण सार्थक होगा, किन्तु कुछ विद्वान् आर्य संस्कृति के वैदिक, औपनिषद, सूत्र और स्मृति वाङ्मय को एक परम्परा का प्रतिनिधि मानते हैं, जो शास्त्रीय परंपरा कही जा सकती है और पुराणों को दूसरी परम्परा का, जिसे लोक-परम्परा कहा जा सकता है, जो इस उद्देश्य से पनपी थी कि जिन वर्गों को. या जिन व्यक्तियों को (जैसे महिलाएँ, कामगार आदि) श्रुति के अध्ययन की सुविधा नहीं थीं, उन्हें वाचिक परम्परा से हमारी विद्याओं का, इतिहास का, आख्यानों का, उपाख्यानों का ज्ञान सरलता से दिया जा सके। तभी तो वैदिक परम्परा के प्रवक्ता ऋषि रहे और पौराणिक परम्परा के प्रवक्ता 'सूत' लोग। यह एक मान्यता मात्र है जिस पर पिछले दिनों बहुत कुछ लिखा गया है। केवल सूचना की दृष्टि से, जानकारी के लिए यह उल्लेख हमने यहाँ किया है। इस संकेत मात्र से प्रबुद्ध पाठक हमारा मन्तव्य समझ जाएँगे। (xi) . ..