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1. क्षपण कहलाता है।
2. क्षेपण - पूर्वसंचित कर्मों को दूर करने वाला होने से क्षेपण है। 3. निर्जरण - पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा में सहायक होने से निर्जरण है। 4. शोधन आत्म भावों का विशोधक होने से शोधन कहलाता है।
5. धावन मलिन कर्मों को प्रक्षालित करने वाला होने से धावन कहा
जाता है।
6. पुंछन – जीव संपृक्त दुष्कर्मों का निराकरण करने वाला होने से इसका पुंछन नाम है।
7. उत्क्षेपण – चेतनाबद्ध शुभाशुभ कर्मों को उससे विलग करता है, बहुत दूर फेंकता है इसलिए इसे उत्क्षेपण नाम दिया गया है।
8. छेदन - आत्म आच्छादित कर्म समूह को छिन्न- भिन्न ( चूर्ण- चूर्ण) कर देने वाला होने से इसे छेदन कहा गया है।
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प्रायश्चित्त का अर्थ एवं स्वरूप विमर्श... 7
प्रायश्चित्त तप पुराने कर्मों का क्षय करने वाला होने से क्षपण
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इस तरह प्रायश्चित्त के उपर्युक्त आठ नाम भी माननीय हैं।
शास्त्रों में वर्णित प्रायश्चित्त के उक्त स्वरूप से यह स्पष्ट हो जाता है कि आंतरिक अध्यवसायों की शुद्धि ही प्रायश्चित्त है। आत्म विशुद्धि का यही एकमेव स्वतंत्र मार्ग है। गलती करना मानव का स्वभाव है, परन्तु जाने-अनजाने हुए अपराधों एवं दुष्कृत्यों के प्रति ग्लानिभाव या क्षमा भाव रखना मानव से महामानव बनने का श्रेष्ठतम एवं सरलतम मार्ग है। अतः सभी मुमुक्षु आत्माओं को इस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।
में
सन्दर्भ-सूची
1. धर्मसंग्रह, अधिकार 3
2. अभिधानराजेन्द्रकोश, 5/129 (पंचाशक टीका, 16 विवरण)
3. वही, आवश्यक नियुक्ति, 5/129, 855, 5/22)
4. वही, 5/855 (आवश्यक बृहद्वृत्ति - 1522
5. वही, 5 पृ. 855
6. स्थानांगटीका, अभयदेवसूरि, 3/3/196 की टीका 7. दशवैकालिकनिर्युक्ति, पृ. 48