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जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ...133 आशातना होने पर चतुःगुरु, ज्ञान के प्रति विनय न करने पर तथा सूत्रोच्चारण करते समय अशुद्ध अक्षर बोलने पर या न्यूनाधिक अक्षर कहने पर पणग का प्रायश्चित्त आता है। 2. दर्शनाचार सम्बन्धी दोषों के प्रायश्चित्त
संकादिसु अट्ठसु दंसणाइयारेसु देसओ चउगुरु, पुरिसाविक्खाए पुण भिक्खुवसहोवज्झायायरियाणं मासलहु-मासगुरु-चउलहु-चउगुरुगा, सव्वओ मूलं।
(विधिमार्गप्रपा, पृ. 81) दर्शनाचार में निम्नोक्त आठ अतिचार लगते हैं- 1. शंका-देव-गुरु-धर्म में सन्देह करना 2. कांक्षा- इहलोक-परलोक के सुख-दुःख की इच्छा करना 3. विचिकित्सा- धर्म फल में सन्देह करना 4. मूढ़दृष्टि- चारित्रनिष्ठ साधुसाध्वियों की निन्दा करना 5. अनुपबृंहण- गुणवान की प्रशंसा नहीं करना 6. अस्थिरीकरण- धर्म से पतित होते हुए जीव को स्थिर नहीं करना 7. अवात्सल्य- साधर्मी का अपमान करना और 8. अप्रभावना- जिनशासन निन्दा के कार्य करना।
• दर्शनाचार से सम्बन्धित शंका-कांक्षा-आदि आठ प्रकार के अतिचारों का सेवन होने पर जघन्य से चतुःगुरु का प्रायश्चित्त आता है।
• वैयक्तिक अपेक्षा से सामान्य श्रमण, वैयावृत्य करने वाला श्रमण, आचार्य एवं उपाध्याय के द्वारा दर्शनाचार में आंशिक दोष लगने पर क्रमश: मासलघु, मासगुरु, चतुःलघु एवं चतुःगुरु का प्रायश्चित्त आता है तथा सर्वथा दोष लगने पर मूल प्रायश्चित्त आता है। 3. चारित्राचार सम्बन्धी दोषों के प्रायश्चित्त
. पुढविआउतेउवाऊपत्तेयवणस्सईणं संघट्टणे नि., अगाढपरितावणे पु., गाढपरितावणे ए., उद्दवणे आं., विगलिंदियाणंतकाइयाणं संघट्टणादिसु जहासंखं पु.ए.आं.उ.। पंचिंदियाणं पुण ए.आं.उ.। कल्लाणगाणि-इत्थ संघट्टणं तदहजायथिरोलगाईणं,' दप्पओ पंचिदियउद्दवणे पंचक्कल्लाणं। दप्पो धावणवग्गणाई। आउट्टियाए मूलं। बीयसंघट्टे ससिणिद्धे य नि.। उदयउल्लसंघट्टे ए.। सच्चित्ते मुहपोत्तियाए गहिए पु.। अद्दामलगमित्तसचित्तपुढवीए, अंजलिमित्तोदगे सच्चित्ते मीसे य उद्दविए आं.। मयंतरे नि.। नाभिप्पमाणउदगप्पवेसे वत्थिमाइणा कोसं जाव नदीगमणे य