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252...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण परिशंकित अपराधों की जाँच होती है।
• जैन संघ में 'भिक्खु वा भिक्खुणी वा' तथा 'निग्गंथो वा निग्गंथी वा' कहकर साधु-साध्वियों के प्रायश्चित्त सम्बन्धी अधिकांश नियमों में समानता स्थापित की गई है। सामान्य अपराध करने पर मुनि को जो दण्ड दिया जाता है वही साध्वी के लिए भी निर्धारित है। अनवस्थाप्य और पारांचिक दण्ड से भिक्षुणी को मुक्त करने के अतिरिक्त भिक्षु-भिक्षुणियों में अन्य कोई मूलभूत भेद नहीं किया गया है। बौद्ध संघ में भी पारांचिक की तरह परिवास के दण्ड से भिक्षुणियों को मुक्त किया गया है, परन्तु बौद्ध संघ में भिक्खु-पातिमोक्ख तथा भिक्खनी-पातिमोक्ख जिसमें नियमों का उल्लेख है-का अलग-अलग विभाजन है। भिक्खुनी पातिमोक्ख में नियमों की संख्या भिक्खु पातिमोक्ख के नियमों से ज्यादा है।
• जैन दण्ड-व्यवस्था में अपराध की गुरुता में भेद किया गया है। एक जैसा अपराध करने पर उच्च पदाधिकारियों को कठोर दण्ड तथा निम्न पदाधिकारियों को नरमदण्ड दिया जाता है। संघ के उच्च पदाधिकारी चूंकि नियमों के ज्ञाता होते हैं अत: उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे नियमों का सूक्ष्मता से पालन करें। संघ को सुव्यवस्थित आधार प्रदान करने के लिए उनसे उच्च आदर्श उपस्थित करने की मनोभावना रखी जाती है जिससे अन्य लोग उनका अनुसरण कर सकें। बौद्ध संघ में ऐसी व्यवस्था नहीं है। यहाँ अपराध करने पर संघ के सभी सदस्यों के लिए समान दण्ड का विधान है।
• जैन परम्परा में दो व्यक्ति के समान अपराध होने पर भी परिस्थितियों के अनुसार कम-ज्यादा प्रायश्चित्त दिया जाता है। यदि गृहस्थव्रती या मुनि स्वेच्छा से पापकर्म करते हैं, तो उन्हें कठोर दण्ड दिया जाता है तथा वही अपराध अनजाने में अथवा विवशता से किया गया हो, तो सरल दण्ड की व्यवस्था है। अपराधी प्रायश्चित्त अधिकारी को उन परिस्थितियों से अवगत कराता है, जिसके माध्यम से वह पापकर्म के लिए प्रेरित होता है। बौद्ध संघ में यह विशेषता नहीं पायी जाती है।
बौद्ध संघ में प्रत्येक नियम के निर्माण के सम्बन्ध में एक घटना का उल्लेख किया गया है, ताकि उसके द्वारा नियम की गुरुता एवं उसकी प्रकृति को सरलता से समझा जा सकता है परन्तु जैन ग्रन्थों में इस प्रकार की घटनाओं