Book Title: Prayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 322
________________ 256... प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण निशीथभाष्य के अनुसार इनमें अतिचार गुरु और अनाचार गुरुतर है। इनका प्रायश्चित्त भी क्रमशः गुरु, गुरुतर होता है। 5 निशीथसूत्र में निर्दिष्ट प्रायश्चित्त स्थविरकल्पी के लिए अनाचार सेवन की अपेक्षा से है। स्थविरकल्पी को अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार के लिए तप प्रायश्चित्त नहीं आता, मिथ्यादुष्कृत के उच्चारण आदि से उनकी शुद्धि हो जाती है। जैसे- कोई मुनि आधाकर्म आहार ग्रहण की स्वीकृति दे देता है किन्तु उसके लिए प्रस्थान नहीं करता है अथवा प्रस्थान कर उस आहार को ग्रहण कर लेता है किन्तु परिभोग नहीं करता, उसका परिष्ठापन कर देता है तो वह शुद्ध है । उसे खाने वाला अनाचारजन्य प्रायश्चित्त का भागी होता है। जिनकल्पी को अतिक्रम आदि चारों पदों में प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। व्यवहारभाष्य की टीकानुसार स्थविरकल्पी द्वारा सेवनीय अतिक्रम आदि तीनों दोषों का गुरुमास और अनाचार दोष का प्रायश्चित्त चतुर्गुरु है तथा जिनकल्पी द्वारा सेवित अतिचार आदि का प्रायश्चित्त लघुमास है। इस प्रकार यह बोध होता है कि गृहीत व्रतों में लगे दूषणों के आधार पर ही प्रायश्चित्त दान किया जाता है। 3. राग-द्वेष की तरतमता के आधार पर प्रायश्चित्त जिनशासन की अविच्छिन्न परम्परा की एक विशिष्टता यह है कि यदि अपराधी ने राग-द्वेष के मन्द अध्यवसायों में किसी तरह का पापकर्म किया है तो उसे अल्प प्रायश्चित्त दिया जाता है तथा राग-द्वेष जन्य तीव्र अध्यवसाय में किये गये दुष्कर्म से तदनुरूप अधिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । तात्पर्य है कि राग-द्वेष की वृद्धि से प्रायश्चित्त में वृद्धि होती है। दूसरी बात जैसे राग-द्वेष की तीव्रता से प्रायश्चित्त बढ़ता है वैसे ही राग - -द्वेष की न्यूनता से प्रायश्चित्त अल्प होता है । आगम टीकाओं के अनुसार मन्द अनुभाव से अनेक विध अपराध हो जाने पर भी उनकी विशोधि अल्पतप से हो जाती है। पारांचिक (दशवाँ) प्रायश्चित्त जितना अपराध सेवन करने वाला मुनि दसवें, नौवें यावत् नीवि प्रायश्चित्त ग्रहण करके भी विशुद्ध हो जाता है । उसी प्रकार अन्यान्य अपराध पर भी अल्पअल्पतम प्रायश्चित्त से विशुद्ध हो जाता है ।

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