Book Title: Prayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 315
________________ जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ...249 तुलनात्मक अध्ययन गृहस्थ व्रतों एवं मुनि व्रतों में दोष लगने पर तथा लौकिक एवं लोकोत्तर मर्यादाओं का उल्लंघन करने पर उन दुष्कृत्यों की परिशुद्धि के लिए अधिकृत आचार्य आदि द्वारा कहा गया निर्धारित तप, जप एवं स्वाध्याय आदि करना प्रायश्चित्त कहलाता है। संघीय तथा सामाजिक व्यवस्था के सुचारु संचालन के लिए गृहीत नियमों के भंग होने पर अपराधी को प्रायश्चित्त देना अत्यन्त आवश्यक है। श्वेताम्बर-दिगम्बर- श्वेताम्बर परम्परा में जीतकल्पसूत्र (21-30) के अनुसार दस प्रकार के प्रायश्चित्त (दण्ड) माने गये हैं-1. आलोचना 2. प्रतिक्रमण 3. तदुभय 4. विवेक 5. व्युत्सर्ग 6. तप 7. छेद 8. मूल 9. अनवस्थाप्य और 10. पारांचिका दिगम्बर परम्परा के मूलाचार में भी दस प्रकार के प्रायश्चित्तों का उल्लेख है। इसमें प्रारम्भ के आठ वही हैं जो श्वेताम्बर परम्परा में मान्य हैं, शेष दो के नाम परिहार और श्रद्धान है। सम्भवत: इस पंचमकाल के परवर्ती समय में अन्तिम दो प्रायश्चित्तों का व्यवहार बन्द हो जाने से नामों का यह अन्तर आया हो। यद्यपि पारांचिक प्रायश्चित्त और परिहार नामक प्रायश्चित्त का तात्पर्य एक ही है। उमास्वाति रचित तत्त्वार्थसूत्र में दसवें पारांचिक प्रायश्चित्त का उल्लेख नहीं है। साथ ही मूल नामक प्रायश्चित्त के स्थान पर उपस्थापन और अनवस्थाप्य नामक प्रायश्चित्त के स्थान पर परिहार प्रायश्चित्त का नामांकन है। श्वेताम्बर परम्परा में कालक्रम से प्रायश्चित्त के विविध प्रतीकाक्षर एवं प्रकार मिलते हैं जैसे सांकेतिक भाषा में ङ्क = चतुर्लघु, ङ्का = चतुर्गुरु, षड्लघु, फ्रम = षड्गुरु आदि, संख्या के सांकेतिक पदों में ई = 4, ल = 10, एका = 4, र्तृ = 5 आदि, शास्त्रीय शब्दों में नक्षत्र = मास, शुक्ल = लघुमास, कृष्ण = गुरु मास आदि। इसी तरह जीतव्यवहार के अनुसार पणगनीवि, लघुमास-पुरिमड्ढ, गुरुमास-एकासन, चतुःलघु - आयंबिल, चतु:गुरु - उपवास आदि। दिगम्बर परम्परा की उपलब्ध कृतियों में इस तरह के प्रतीकाक्षर लगभग नहीं है। वहाँ जीतव्यवहार प्रचलित निर्विकृति, पुरिमण्डलं, क्षमणम् आदि शब्दों का ही उल्लेख देखा जाता है।

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