Book Title: Prayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 307
________________ जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ... 241 व्रत, निर्विकृत भोजन अथवा उपवास धारण करके रहना चाहिए। सामायिक आदि का पाठ मुख से उच्चारित नहीं करना चाहिए, किन्तु मन में चिन्तन कर सकती है। उसे दिन में प्रासुक जल से अपने अंग और वस्त्र यथा योग्य रीति से शुद्ध कर लेना चाहिए, पाँचवें दिन प्रासुक जल से स्नानकर तथा यथायोग्य रीति से वस्त्र धोकर अपने गुरु के समीप जाना चाहिए और अपनी शक्ति के अनुसार किसी एक वस्तु के त्याग करने का नियम करना चाहिए। यदि आर्यिका अप्रासुक जल से वस्त्र धोये तो एक उपवास तथा पात्र एवं वस्त्रों को प्रासुक जल से धोये तो एक कायोत्सर्ग का प्रायश्चित्त आता है। वैदिक ग्रन्थों में निरूपित प्रायश्चित्त विधान भारतीय संस्कृति में प्रायश्चित्त का अत्यधिक महत्त्व है। जानबूझकर या अनजाने में किये अपराधों या दुष्कर्मों से छुटकारा पाने के लिए जो दण्ड स्वीकार किया जाता है, वह प्रायश्चित्त कहलाता है। वैदिक परम्परा में प्रायश्चित्त का सर्वाधिक मूल्य आंका गया है। यहाँ ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों, धर्मसूत्रों, गृह्यसूत्रों, संहिताओं, प्रमुख स्मृतियों, श्रुतिस्मृतियों आदि में तत्सम्बन्धी विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। ऋग्वेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद, आपस्तम्ब धर्मसूत्र, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में प्रायश्चित्त के विविध अर्थ किये गये हैं । वैदिक साहित्य में प्रायश्चित्ति एवं प्रायश्चित्त- ऐसे दो शब्दों का प्रयोग है किन्तु अर्थ की दृष्टि से दोनों में समानता है, यद्यपि प्रायश्चित्ति शब्द अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन है। आचार्य सायण (सामविधान 1/51/1) ने प्रायश्चित्त शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है कि प्र (प्रकर्षेण) उपसर्ग पूर्वक, आयः + प्रायः अर्थात प्राप्ति, चित्तं ज्ञानं (चिति संज्ञाने) प्रायश्चित्तं। किसी विहित कर्म का ज्ञात या अज्ञात अवस्था में सम्पादन न होने के फलस्वरूप अन्त में उन कृत्यों को परिपूर्ण करने की प्रक्रिया प्रायश्चित्त कहलाती है। अङ्गिरस स्मृति (214) में प्रायश्चित्त की व्युत्पत्ति करते हुए 'प्राय: ' को तप एवं 'चित्त' को निश्चय कहा है तथा तप और निश्चय के संयोग को प्रायश्चित्त कहा गया है। प्रायो नाम तपः प्रोक्तं, चित्त निश्चय तपो निश्चय संयोगात्, प्रायश्चित्तमिति उच्यते । स्मृतम् ।।

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