Book Title: Prayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 304
________________ 238... प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण • यदि मुनि अप्रमत्त होकर स्पर्शन इन्द्रिय का विषय-पोषण करे तो एक कायोत्सर्ग, रसना इन्द्रिय को वश में न करे तो दो कायोत्सर्ग, घ्राण इन्द्रिय को वश में न करे तो तीन कायोत्सर्ग, चक्षु इन्द्रिय को वश में न करे तो चार कायोत्सर्ग, कर्ण इन्द्रिय को वश में न करे तो पाँच कायोत्सर्ग, यदि कोई मुनि प्रमादी होकर इन इन्द्रियों को वश में न करे तो क्रमशः एक उपवास, . दो उपवास, तीन उपवास, चार उपवास और पाँच उपवास का प्रायश्चित्त आता है। • यदि मुनि वन्दना आदि छहों आवश्यकों के करने में तीनों कालों के नियमों को भूल जाये अथवा समय का अतिक्रमण हो जाये तो प्रतिक्रमण पूर्वक एक उपवास, यदि कोई मुनि तीन पक्ष तक प्रतिक्रमण न करे तो उसका प्रायश्चित्त दो उपवास, यदि कोई मुनि चातुर्मासिक प्रतिक्रमण न करे तो आठ उपवास, तथा यदि कोई मुनि वार्षिक प्रतिक्रमण न करे तो चौबीस उपवास का प्रायश्चित्त आता आता है। • यदि कोई रोगी मुनि चार महीने के बाद केशलोंच करे तो एक उपवास, एक वर्ष के बाद केशलोंच करे तो तीन उपवास, पाँच वर्ष के बाद केशलोंच करे तो पंचकल्लाण, यदि कोई नीरोग मुनि चार महीने के बाद एकएक वर्ष के बाद या पाँच वर्ष के बाद केशलोंच करे तो निरन्तर पंचकल्लाण का प्रायश्चित्त आता है। • यदि मुनि उपसर्ग से बचने के कारण वस्त्र ओढ़े तो एक उपवास, व्याधि के कारण वस्त्र ओढ़े तो तीन उपवास, अपने दर्प से वस्त्र ओढ़े या अन्य किसी कारण से वस्त्र ओढ़े तो पुनर्दीक्षा का प्रायश्चित्त आता है। • यदि मुनि एक बार स्नान करे तो एक पंच कल्याणक, एक बार कोमल शय्या पर शयन करे तो एक कल्लाणक, यदि कोई मुनि प्रमादवश एक बार बैठकर भोजन करे तो पंच कल्लाणक, यदि कोई मुनि प्रमादवश दिन में दो बार भोजन करे तो पंच कल्याणक, यदि कोई मुनि अहंकारवश एक बार बैठकर भोजन करे या दिन में दो बार भोजन करे तो दीक्षा छेद, यदि कोई मुनि बार-बार बैठकर आहार करे अथवा दिन में दो बार भोजन करे तो पुनर्दीक्षा प्रायश्चित्त का भागी होता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340