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64... प्रायश्चित विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
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उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य टीका के अनुसार - " आलोयणमरिहंति वा मज्जा लोयणा गुरुसगासे ।"
गुरु
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के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना आलोचना है। 2 दशवैकालिकचूर्णि में दोषों को प्रकट करने अथवा आत्मा की विशुद्धि करने को आलोचना कहा गया है- " आलोयणं ति वा पगासकरणं ति वा अक्खणं विसोहिं ति वा । '
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चूर्णिकार ने आलोचना का वैशिष्ट्य दिखलाते हुए यह भी कहा है कि अवश्य करणीय भिक्षाचर्या आदि कार्यों में अपराध नहीं होने पर भी उनकी आलोचना करनी चाहिए, अन्यथा अनालोचित रहने पर उन क्रियाओं का अविनय होता है।
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आवश्यकनिर्युक्ति हारिभद्रीय टीका में कहा गया है कि प्रयोजनवश उपाश्रय से सौ हाथ अधिक बहिर्गमन आदि करने पर उनमें लगे दोषों को गुरु अभिमुख कहना आलोचना है | 4
• नियमसार में आलोचना का आध्यात्मिक स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि अपने परिणामों को समभाव में स्थितकर स्वयं के द्वारा स्वयं को देखना आलोचना है। 5
• सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक एवं अनगारधर्मामृत के उल्लेखानुसार"गुरवे प्रमाद निवेदनं दशदोषविवर्जितमालोचनम् " गुरु के समक्ष दश दोषों को टालकर अपने प्रमाद का निवेदन करना आलोचना है।
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धवला टीकाकार के अनुसार आलोचनादाता गुरु श्रुत रहस्य के ज्ञाता, वीतरागमार्गी एवं रत्नत्रय पालन में मेरू समान सुस्थिर होने चाहिए और इन गुणों से युक्त सद्गुरु के समक्ष दोषों को प्रकट करना यथार्थ आलोचना है।
• भगवती आराधना में आलोचना का निश्चय और व्यवहारमूलक स्वरूप बतलाते हुए कहा है- "स्वकृतापराधगूपनत्यजनम् आलोचना'
अपने द्वारा किये गये अपराधों या दोषों को छिपाने का प्रयत्न न करके उसका त्याग करना निश्चय आलोचना है तथा "कृतातिचारजुगुप्सा पुरः सरं वचनमालोचनेति' चारित्र धर्म का आचरण करते समय लगने वाले अतिचारों की पश्चात्ताप पूर्वक निन्दा करना व्यवहार आलोचना है |