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आलोचना क्या, क्यों और कब?...87 भावयुक्त दैवसिक आदि प्रतिक्रमण करने वालों की सामान्य आलोचना हो जाती है। तदुपरान्त जब साधक विशेष धर्म की आराधना हेतु तत्पर बने, उस समय पूर्वकृत दुष्कृत्यों का सूक्ष्म निरीक्षण कर पुन: आलोचना करनी चाहिए।
सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति या अनशन जैसी उत्तम क्रियाएँ आत्मा में विशेष शुभ भावों की जनक हैं इसलिए उक्त क्रियाओं को प्रारम्भ करने से पहले अवश्य आलोचना करनी चाहिए। क्योंकि अशुभ संस्कारों के क्षय से शुभ भाव उत्पन्न होते हैं और उसमें ही शुभ संस्कार बनते हैं। आत्मा में जब तक अशुभ संस्कार जमे रहते हैं तब तक चाहे जितनी मात्रा में शुभ क्रिया करें वह थोड़े शुभ भाव उत्पन्न तो कर सकती हैं परन्तु उत्पन्न शुभ भावों को स्थायित्व प्रदान कर शुभ संस्कार के योग्य नहीं बना सकती। ___एक अच्छा जिनालय बनाने का इच्छुक व्यक्ति उसका पाया खोदते समय सर्वप्रथम यह निरीक्षण करता है कि यहाँ शल्य है कि नहीं? क्योंकि शल्ययुक्त प्रासाद दीर्घावधि तक टिक नहीं सकता। कदाच टिक जाये तो निवासियों को सुख नहीं दे सकता। इसलिए जिनालय का निर्माण करवाने वाला सबसे पहले भूमि के अन्दर से हड्डियाँ, अशुभ वस्तुएँ आदि दूर करवाता है वैसे ही उत्तम क्रिया का प्रारंभ करने से पहले पाप रूप शल्य को दूर कर देना चाहिए। उसके बाद शुभ अनुष्ठान का प्रारंभ करना चाहिए।
निमित्त शुद्धि- किसी भी शुभकार्य को करते हुए अच्छे शकुन आदि देखने चाहिए। उस समय अंगस्फुरण कैसा हो रहा है यह विशेष ध्यान देना चाहिए। निमित्त कैसे हैं? चित्त का उत्साह किस प्रकार का है? आदि देखकर अच्छे शकुन, शुभ अंगस्फुरण, शुभनाड़ी गमन और वर्द्धित उत्साह के समय आलोचना करनी चाहिए। इससे आलोचना अनुष्ठान में अवश्य सफलता मिलती है। शास्त्रों में वर्णन आता है कि लक्ष्मणा साध्वी ने आलोचना करने के लिए जब प्रस्थान किया उसी क्षण पाँव में कांटा चुभ गया। उसके उपरान्त भी - वह आलोचना दाता गुरु के समीप पहुंची, परन्तु अशुद्ध निमित्त की उपेक्षा करने से पापों की पूर्ण शुद्धि नहीं कर सकी। इसलिए आलोचक को निमित्त शुद्धि के प्रति भी सावधान रहना चाहिए।
भाव शुद्धि- शास्त्र वर्णित विधि के अनुसार पाप की शुद्धि करने का भाव उत्पन्न होना यही आत्मा को शुद्ध बनाता है। आलोचना करने से पूर्व यह