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28... प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
के अन्तिम चौदह पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु के समय से ही दोनों प्रायश्चित्त लुप्त हो चुके हैं। शेष प्रायश्चित्त जब तक जिनशासन है तब तक रहेंगे। इस तरह वर्तमान में आठ प्रायश्चित्त प्रवर्त्तमान हैं। 41
प्रायश्चित्त के प्रकारान्तर
दोषों की तरतमता एवं विभिन्नता के आधार पर प्रायश्चित्त के निम्न चारभेद भी बताये गये हैं^2
1. प्रतिसेवना - निषिद्ध - अकल्प्य आचार का समाचरण करना प्रतिसेवना कहलाता है।
2. संयोजना - शय्यातरपिंड, राजपिंड आदि भिन्न-भिन्न अपराधजन्य प्रायश्चित्तों की संकल्पना करना संयोजना है।
3. आरोपणा - एक दोष से प्राप्त प्रायश्चित्त में दूसरे दोष के आसेवन से प्राप्त प्रायश्चित्त का आरोपण करना आरोपणा कहा जाता है।
4. परिकुंचना - बड़े दोषों को कपट पूर्वक छोटे दोष के रूप में बताना परिकुंचना प्रायश्चित्त है ।
1. प्रतिसेवना प्रायश्चित्त
'प्रतिसेवना' जैन आचार विज्ञान का एक पारिभाषिक शब्द है। अभिधानराजेन्द्रकोश में 'प्रतिसेवना' का शाब्दिक अर्थ करते हुए कहा है- 'प्रतिसेव्यते इति प्रतिसेवना, प्रीतपं सेवना प्रतिसेवना, प्रतिषिद्धस्य सेवना प्रतिसेवना' 43 प्रतिषिद्ध, निषिद्ध या अनाचारणीय आचरण करना प्रतिसेवना है तथा उसकी शुद्धि के लिए जो आलोचना - प्रतिक्रमण आदि किये जाते हैं, उसे प्रतिसेवना प्रायश्चित्त कहते हैं।
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प्रतिसेवना के मुख्य दो रूप बताये गये हैं- दर्पिका और कल्पिका | 4 मूलगुण एवं उत्तरगुण की अपेक्षा से इनके भी दो-दो भेद निरूपित हैं। 45 प्रमादभाव से किया जाने वाला अपवाद सेवन दर्प होता है और वही अप्रमाद भाव से किया जाने पर कल्प- आचार हो जाता है। ज्ञान आदि की अपेक्षा से किया जाने वाला अकल्प सेवन भी कल्प है। 46
यह प्रतिसेवना द्रव्य-भाव भेद से दो प्रकार की है- द्रव्यमयी और भावमयी। मात्र द्रव्यमयी दृष्टि से पदार्थ सेवन करना द्रव्यमयी प्रतिसेवना है और भाव से उपयोग करना वह भावमयी प्रतिसेवना है।