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सम्पादक की कलम से...
अनन्त करुणा के महासागर श्री अरिहन्त-परमात्मा अपने चारों निक्षेपों के द्वारा जगत् के जीवों पर उपकार की वर्षा कर रहे हैं।
सांकेतिक नाम का उच्चारण करने से सांकेतिक वस्तु का बोध होता है। वह वस्तु का नाम निक्षेप है।
वस्तु की आकृति से भी वस्तु का यथार्थ बोध होता है। वह वस्तु का स्थापना निक्षेप है।
___ वस्तु की भूत-भावी अवस्थाएँ भी वस्तु का बोध कराती हैं। वह वस्तु का द्रव्य निक्षेप है।
इसी प्रकार वस्तु स्वयं अपने स्वरुप का बोध कराती है। वह वस्तु का भावनिक्षेप है। जिस वस्तु का भाव निक्षेप पूजनीय हो उसके नाम आदि निक्षेप भी पूजनीय गिने जाते हैं
और जिस वस्तु का भाव निक्षेप अपूजनीय होता है, उसके नामादि निक्षेप भी अपूजनीय गिने जाते हैं।
अरिहन्त परमात्मा का भाव निक्षेप वन्दनीय/पूजनीय होने से उनके नाम व स्थापना निक्षेप भी उतने ही वन्दनीय और पूजनीय है। .
'परन्तु अज्ञानता और मोह की प्रबलता के कारण विक्रम की लगभग १७ वीं शताब्दी में लोंकाशा आदि ने मूर्तिपूजा के विरुद्ध.बांग/पुकारी युक्ति और आगम से मूर्तिपूजा सिद्ध होने पर भी कदाग्रह से ग्रस्त व्यक्तियों ने मूर्तिपूजा के विरुद्ध जोर-शोर से प्रचार प्रारम्भ कर दिया था मूर्ति तो पत्थर की है, उसे पूजने से क्या फायदा? मूर्तिपूजा में तो एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा रही हुई है - उसकी पूजा से क्या फायदा? इस प्रकार के कुतर्कों से अनेक लोग मूर्ति का विरोध करने लगे थे। इतना ही नहीं अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर आगमों में जहाँजहाँ मूर्तिपूजा का उल्लेख था - या तो उन्होंने उस आगम को स्वीकार करने से ही इन्कार कर दिया अथवा 'चैत्य' शब्द का अर्थ ही बदल दिया।
मूर्तिभंजकों के कुमत के प्रचार-प्रसार से अनेक व्यक्तियों की मूर्तिविषयक श्रद्धा भी । डगमगाने लग गई थी। कसौटी के इस प्रसंग में पूज्य उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने 'प्रतिमाशतक' जैसे अनमोल ग्रन्थ की रचना कर प्रतिमालोपकों का तर्क, युक्ति व आगम से खण्डन कर सन्मार्ग की स्थापना की थी।
'प्रतिमाशतक' में पूज्य उपाध्यायजी महाराज लिखते हैं -