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सूरिपुंगवों ने ही फरमाया है, ऐसा नहीं, परन्तु पूर्व के पूर्वधर - भगवान श्री जिनभद्र गणि क्षमाश्रमणजी, दश-पूर्वधर - भगवान श्री उमास्वातिजी और चौदह पूर्वधर श्रुतकेवली भगवान श्री भद्रबाहु स्वामीजी आदि अनेक सूरिपुरन्दरों ने भी महाभाष्य, पूजा प्रकरण, आवश्यक नियुक्ति आदि महाशास्त्रों में भी ऐसा फरमाया है। इतना ही नहीं, परन्तु मूल आवश्यक सूत्रकार गणधर भगवान श्री सुधर्मास्वामीजी महाराज ने, कायोत्सर्ग, आवश्यक और उसके अलावों में भी स्पष्ट शब्दों में बताया है। .
प्रतिमा-पूजन की सिद्धि और श्रेयःसाधकता के लिए, इससे अधिक प्राचीन और प्रबल प्रमाण दूसरे भाग्य से ही हो सकते है। प्रतिमा-पूजन, यह किसी अज्ञानी, स्वार्थी साधु या पूर्तपुरुष की कही हुई निरर्थक क्रिया नहीं है, किन्तु सर्वोत्तम ज्ञान को प्राप्त, नि:स्वार्थ और शुद्ध पुरुषों ने स्व-पर-श्रेयः के लिए बताई गई अजोड़ और अनुपम सफल धर्मक्रिया है। इसके अनेक प्रमाण इस पुस्तक में स्थान-स्थान पर देने का प्रयास किया गया है। इन्हें ध्यानपूर्वक पढ़ने वाले किसी भी समदृष्टि वाचक को स्पष्ट हुए बिना नहीं रहेगा कि प्रतिमापूजन, यह अज्ञान या अविवेक से उत्पन्न नहीं हुई है, परन्तु इसका खण्डन ही घोर अज्ञान और अविवेक में से उत्पन्न हुआ है।
प्रतिमा-पूजन जैसी सर्वोच्च आत्मकल्याणकर प्रवृत्ति के लिए व्यंग्य कसने वाले वर्ग के दो भाग हो जाते हैं। एक प्राचीन विचारश्रेणी का और दूसरा अर्वाचीन विचारश्रेणी का। प्राचीन विचारश्रेणी का वर्ग प्रतिमापूजन में हिंसा और उसे अधर्म मानता है और अर्वाचीन, विचारश्रेणी का वर्ग प्रतिमा-पूजन में वृद्धि की जड़ता और उसे अन्ध परम्परा मानता है। ये दोनों विचारश्रेणियाँ अज्ञानमूलक हैं। प्रतिमा-पूजन से हिंसा नहीं, परन्तु अहिंसा बढ़ती है तथा प्रतिमा-पूजन से बुद्धि की जड़ता नहीं किन्तु निर्मलता बढ़ती है तथा अंध अनुकरण के बजाय सर्वोत्कृष्ट ज्ञानियों के बताये ज्ञानमार्ग का अनुसरण होता है।
इस सम्पूर्ण पुस्तक में प्राचीन और अर्वाचीन दोनों श्रेणी के विचारों का प्रतिमा-पूजन सम्बन्धी विरोध वाला मन्तव्य कितना भूल भरा है, उसे समझाने का शक्य प्रयास किया गया है और प्रतिमा-पूजन से होने वाले उत्तरोत्तर लाभों का युक्ति, अनुभव और शास्त्र के आधार से हो सके उतना सत्य समर्थन किया गया है। प्रतिमा-पूजन के पक्ष सम्बन्धी आज तक बहुत सा साहित्य, शास्त्र के अनुसार प्रकाशित हो चुका है। इस ग्रन्थ में उसी बात को भिन्न प्रकार से समझाया गया है।
श्री जिन-प्रतिमा पूजन, यह एक ऐसा विषय है कि उस पर अनेक महापुरुषों ने अनेक प्रकार से विचार किया है और उसके लाभ ढंढने के लिए अपना जीवन लगाया है। उसके हार्द में वे जैसे-जैसे गहरे उतरते गये हैं, वैसे-वैसे उन्हें नया-नया अनुभव-दर्शन प्राप्त होता गया। इससे होने वाले सम्पूर्ण लाभों का अन्त ढूंढ़ना, बड़े-बड़े योगियों को भी अगम्य हुआ