Book Title: Pratima Poojan
Author(s): Bhadrankarvijay, Ratnasenvijay
Publisher: Divya Sandesh Prakashan

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Page 11
________________ लेखक की कलम से... समर्थ शास्त्रकार-महर्षि आचार्य भगवन्त श्रीमद् हरिभद्रसूरिजी और उनसे भी पूर्व के महान् पूर्वाचार्य महर्षि फरमाते हैं . • "चैत्यवन्दनतः सम्यक्, शुभो भावः प्रजायते । तस्मात् कर्मक्षयः सर्वं, ततः कल्याणमश्नुते ।। चैत्य अर्थात् जिन-मन्दिर अथवा श्री जिनविम्ब को सम्यग् रीति से वन्दन करने से प्रकृष्ट शुभ भाव पैदा होते हैं। शुभ भाव से कर्म का क्षय होता है और कर्मक्षय से सर्व कल्याण की प्राप्ति होती है। मन, वचन, काया की प्रशस्त प्रवृत्ति का नाम 'वन्दन' है। मन से ध्यान करना, वचन से स्तुति करना तथा काया से पूजा आदि करना, उन्हें शास्त्रीय भाषा में वन्दनक्रिया कहते हैं। श्री अरिहन्त के चैत्यों को मन, वचन और काया द्वारा वन्दन करना, सुगन्धित पुष्पमाला आदि द्वारा उनकी पूजा करना, श्रेष्ठ वस्त्रालंकारों द्वारा उनका सत्कार करना और गुणस्तुत्यादि द्वारा उनका सन्मान करना, यह जन्मान्तर में भी श्री जिनधर्म की प्राप्ति कराने वाले होते हैं; और अन्त में जन्म, जरा, मृत्यु आदि के दुःखों का स्पर्श भी जहाँ नहीं है, ऐसे 'निरुपसर्ग' मोक्षपद को देने वाले होते हैं, ऐसा सूत्रकार भगवन्त मूल सूत्रों में फरमाते हैं। _ 'चैत्यवन्दन' अर्थात् 'अरिहन्तों की प्रतिमाओं का पूजन' कैसे होता है, इस सम्बन्ध में शब्दशास्त्र-विशारद फरमाते हैं कि - - "चित्तम् - अन्तःकरणं तस्य भावः कर्म वा, प्रतिमालक्षणम् अर्हच्चैत्यम् । अर्हतां प्रतिमाः प्रशस्तसमाधि-चित्तोत्पादकत्वात् चैत्यानि भण्यन्ते।" चित्त यानी अन्तःकरण। अन्तःकरण का भाव अथवा अन्तःकरण की क्रिया, उसको नाम चैत्य है। अरिहन्तों की प्रतिमाएँ अन्तःकरण की प्रशस्त समाधि को पैदा करने वाली होने से 'चैत्य' कहलाती है। - चैत्य शब्द का दूसरा अर्थ - "चैत्यं जिनौकस्तबिम्बम् ।" श्री जिनगृह अथवा श्री जिनबिम्ब ऐसा भी अर्थ कोशकारों ने किया है। उस चैत्य को वन्दन आदि करने से शुभ भाव की वृद्धि होती है, शुभ भाव की वृद्धि से उत्तरोत्तर सम्यग्दर्शनादि विशुद्ध धर्मों की प्राप्ति होती है और इससे परम्परा से सर्व कर्म की मुक्ति आदि महत् कार्य भी सिद्ध होते हैं। - अर्हत् चैत्य यानी श्री अरिहन्तों की प्रतिमाओं को वन्दन-पूजन आदि करने से सम्यग्दर्शनादि आत्मगुणों की प्राप्ति और कर्मक्षय की सिद्धि होती है, ऐसा श्रीमद् हरिभद्रसूरि म. आदि । ४ । .

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