Book Title: Pramey Kamal Marttandsara Author(s): Anekant Jain Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 7
________________ ( vi) के उन अंशों को अवश्य लिया है जो सीधे सूत्र की व्याख्या करते हैं। (2) मूल ग्रन्थ में किसी महत्त्वपूर्ण विषय पर अनेकानेक शंका समाधान में पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष के रूप में कुछ अति आवश्यक पक्षों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। (3) एक शंका के समाधान में आचार्य ने कई बिन्दुओं पर चर्चायें की हैं, तथा अनेक तर्क प्रस्तुत किये हैं, हमने उनमें से आरम्भ के कुछ तर्क ही संकलित किये हैं जिनसे शंका का समाधान होता प्रतीत हो रहा (4) मूल टीका को अध्ययन-अध्यापन की सुविधानुसार नये पैराग्राफ बनाकर रोचक बनाने का प्रयास किया है तथा उनमें क्रमांक देकर उन्हें व्यवस्थित किया है ताकि अनुवाद/व्याख्या के साथ पाठकों को संगति बैठाने में असुविधा न हो। (5) पूज्य विदुषी आर्यिका जिनमती माताजी ने सम्पूर्ण-मूल ग्रन्थ का प्रथम हिन्दी अनुवाद कार्य किया, जो तीन भागों में प्रकाशित है, उसी के आधार पर उसका सार तथा विशेषार्थ देने का प्रयास यहाँ किया गया (6) मूल ग्रन्थ में छह परिच्छेद हैं, सुविधा हेतु मैंने सात परिच्छेद कर दिये हैं। सप्तम परिच्छेद में जैन दर्शन के हार्द नय तथा सप्तभङ्गों की विस्तृत गम्भीर चर्चा है अतः उसे स्वतन्त्र परिच्छेद में रखना उचित माना। (7) प्रत्येक सूत्र के साथ पहले संस्कृत में मूलग्रन्थानुसार सूत्रार्थ दिया है, फिर टीका की हिन्दी व्याख्या दी है। इनके अतिरिक्त भी काफी कुछ सुधार और सरल रूप में प्रस्तुतिकरण का यह लघु प्रयास इस विश्वास पर किया है कि जिज्ञासुओं को यह सुविधाजनक लगेगा तथा प्रभाचन्द्राचार्य के मूल ग्रन्थ को सम्पूर्ण रूप में पढ़ने की शुरुआत करने का उत्साह बढ़ेगा क्योंकि यह ग्रन्थ तो मात्र उस बड़े ग्रन्थ का प्रवेशद्वार है। इस कार्य को करने में मुझे अनेक विद्वत्जनों का सहयोग तथाPage Navigation
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