Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 12
________________ (महावीर) को छोडकर शेष सभी औपनिषदिक, बौद्ध, आजीवक आदि अन्य श्रमणधाराओं से सम्बंधित है। आश्चर्य यह है कि इनमें से अधिकांश को अर्हत् ऋर्षि कहकर सम्बोधित किया गया है, ये जैन चिन्तकों की उदारदृष्टि का परिचायक है। ज्ञातव्य है कि यह ग्रंथ जैन धर्म के साम्प्रदायिक घेरे में आबद्ध होने के पूर्व की स्थिति का परिचायक है। ज्ञातव्य है कि जब जैनधर्म साम्प्रदायिक घेरे में आबद्ध होने लगा, तब यह प्राचीनतम प्राकृत का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ भी उपेक्षा का शिकार हुआ, इसकी विषय-वस्तु को दसवें अंगआगम से हटाकर प्रकीर्णक के रूप में डाला गया। सद्भाग्य यही है कि यह ग्रंथ आज भी अपने वास्तविक स्वरूप में सुरक्षित है। प्राकृत और संस्कृत के विद्वानों से मेरी यही अपेक्षा है कि इस ग्रंथ के माध्यम से भारतीय संस्कृति की उदार और उदात्त दृष्टि को पुनर्स्थापित करने का प्रयत्न करें। ज्ञातव्य है, कि अन्य जैन आगमों में ऋषिभाषित के अनेक सन्दर्भ आज भी देखे जते है। जैन आगम साहित्य के वर्गीकरण और संख्या का प्रश्न जैन आगम साहित्य का वर्गीकरण दो रूपो में पाया जता है- अंग प्रविष्ट और अंग बाह्म। प्राचीनकाल से श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में आगमों को अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य- ऐसे दो विभागों में बांटा जाता रहा है। अंगप्रविष्ट ग्रंथो की संख्या 12 बारह मानी गयी है और इनके नामो को लेकर भी दोनों परम्पराओं में कोई मतभेद नहीं है। उन दोनो में बारह अंगो के निम्न नाम भी समान रूप से माने गये है- 1. आचारांग, 2. सूत्रकृतांग, 3. स्थानांग, 4 समवायांग, 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र), 6. ज्ञाताधर्मकथा, 7. उपासकदशा, 8. अन्तकृत्दशा, 9. अनुत्तरौपपातिकदशा, 10. प्रश्नव्याकरण, 11. वियाकसूत्र और 12. दृष्टिवाद। दोनो परम्पराएँ इस संबंध में भी एकमत है कि वर्तमान में दृष्टिवाद अनुपलब्ध है। यद्यपि दिगम्बर परम्परा यह स्वीकार करती है कि उसके ये आगमतुल्य ग्रंथ हैं, वे इसी आधार पर निर्मित हुए है। अंगबाह्यों के सम्बंध में दोनों परम्पराओं में आंशिक एकरूपता और आंशिक मतभेद देखा जाता हैं। दिगम्बर परम्परा अंग बाह्य की संख्या 14 मानती है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा ऐसा कोई स्पष्ट निर्देश नहीं करती हैं। तत्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर मान्य स्वोपज्ञ-भाष्य में अंग बाह्य को अनेक प्रकार का कहा गया है। दिगम्बर परम्परा की तत्वार्थ की टीकाओं और धवला में.14 अंग बाह्यों [8]

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