Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya ke Jain Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 10
________________ की भायूरोपीय वर्ग की सभी भाषाएं एक दूसरे के निकट ही देखी जाती है, आज भी आचारांग सूत्र की प्राचीन प्राकृत में अंग्रेजी के अनेक शब्द रूप देखे जाते हैं, जैसे बोंदि (Body), एस (As), आउट्टे (Out), चिल्लड-चिल्ड्रन (Childern) आदि। आज प्राकृत की प्रत्येक संगोष्ठी में यह प्रश्न भी उठाया जाता है कि प्राकृत से संस्कृत बनी या संस्कृत से प्राकृत बनी तथा इनमे कौन कितनी प्राचीन हैं। जैन परम्परा में ही जहाँ ‘नमिसाधु' प्राकृत से संस्कृत के निर्माण की बात कहते हैं, वहीं हेमचन्द्र 'प्रकृति संस्कृतम्' कहकर संस्कृत से प्राकृत के विकास को समझाते है। यद्यपि यह भ्रान्ति भाषाओं के विकास के इतिहास के अज्ञान के कारण है। सर्वप्रथम हमें बोली और भाषा के अंतर को समझ लेना होगा। प्राकृत अपने आप में एक बोली भी रही है, और भाषा भी। भाषा का निर्माण बोली को व्याकरण के नियमों में जकडक़र किया जाता है। अत: यह मानना होगा कि संस्कृत का विकास प्राकृत बोलियों से हुआ है। प्राकृत मूल में भाषा नहीं, अनेक बोलियों के रूप रही है। इस दृष्टि से प्राकृत बोली के रूप में पहले है, और संस्कृत भाषा उसका संस्कारित रूप है। दूसरी ओर यदि प्राकृतभाषा की दृष्टि से विचार करें, तो प्राकृत भाषाओं का व्याकरण संस्कृत व्याकरण से प्रभावित हैं, अत: संस्कृत पहले और प्राकृतें (लोकभाषाएँ) परवर्ती है। मूल में प्राकृतें अनेक बोलियों से विकसित हुई है, अत: वे अनेक है। संस्कृत भाषा व्याकरणनिष्ट होने से परवर्ती काल में एक रूप ही रही है। जैन ग्रंथो में भी प्राकृतों के अनेक रूप जते है, यथा-मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी महाराष्ट्री और उनसे विकसित विभिन्न अपभ्रंशे। आजजो भी प्राचीन स्तर का जैन साहित्य है, वह सभी इन विविध प्राकृतों में लिखित है। यद्यपि जैनाचार्यो ने ईसा की तीसरी-चौथी शती से संस्कृत भाषा को भी अपनाया और उसमें भी विपुल मात्रा में ग्रंथों की रचना की, फिर भी उनका मूल आगमसाहित्य, आगमतुल्य और अन्य विविध विधाओं का विपुल साहित्य भी प्राकृत भाषा में ही है। प्राकृत भाषा में रचित जैन साहित्य में प्राचीनता की अपेक्षा मुख्यतः उनका आगम साहित्य आता है। आगमों के अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा के अनेक आगमतुल्य ग्रंथ भी प्राकृत भाषा में ही रचित है। इसके अतिरिक्त जैन कर्मसाहित्य के विविध ग्रंथ भी प्राकृत भाषा में ही मिलते हैं। इनके अतिरिक्त जैन साहित्य की [6]

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