Book Title: Prakrit Vidya 2000 04
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 11
________________ प्राकृत का संस्कृत से सामंजस्य -डॉ० जानकीप्रसाद द्विवेदी, जिसे 'संस्कृतभाषा' के नाम से जाना जाता है, उसे ही प्रारम्भ में देववाणी' कहा जाता था। इस नित्य वाणी का व्यवहार सर्वप्रथम स्वयम्भू ब्रह्मा ने किया था, जिसका रूप वेदों में देखने को मिलता है। कृष्णद्वैपायन व्यास ने 'महाभारत' में कहा है "अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा। आदौ वेदमयी दिव्या यत: सर्वा: प्रवृत्तयः ।।" -(महाभारत - शान्ति० 224/55) भगवत्पाद शङ्कराचार्य ने 'ब्रह्मसूत्रभाष्य' (1/3/28) में अनादिनिधनरूपा इस वाणी को 'सम्प्रदाय-प्रवर्तनरूपा' कहा है। महर्षि वाल्मीकि ने इस देववाणी के दो रूपों का उल्लेख किया है- 1. द्विजाति संस्कृत तथा 2. मानुषी संस्कृत। जब हनुमान् रावण की अशोकवनिका में शिंशपा वृक्ष पर छिपकर बैठे थे, उस समय वहाँ रावण ने आकर कटुवचन-भयदर्शन आदि के द्वारा सीता को त्रास पहुँचाया। उसके चले जाने पर हनुमान् विचार करने लगे कि “यदि मैं ब्राह्मणों की तरह आभिजात्य संस्कृत का प्रयोग करूँगा, तो सीता मुझे वानर के वेष में उपस्थित रावण समझकर भयभीत हो जायेंगी।" इसलिए उन्होंने मानुषी संस्कृत में सीता के साथ वार्ता करने का निश्चय किया "वाचं चोदाहरिष्यामि मानुषीमिह संस्कृताम्, यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम् । रावणं मन्यमानां मां सीता भीता भविष्यति ।।" -(वा०रा०, सुन्दर० 30/17-18) . इस देववाणी का प्रयोगक्षेत्र केवल देवलोक या केवल भूलोक ही नहीं रहा, किन्तु महाभाष्यकार पतञ्जलि के अनुसार सात द्वीपों वाली पृथ्वी, तीन लोक, चार वेद, छह अंग (शिक्षा-कल्प-व्याकरण-ज्योतिष-छन्दस्-निरुक्त), रहस्य (उपनिषद्-मन्वादिस्मृतियाँ), यजुर्वेद की एक सौ एक शाखायें, सामवेद की 1000 शाखायें, ऋग्वेद की 21 शाखायें अथर्ववेद की 9 शाखायें, वाकोवाक्य (कथोपकथन प्रश्नोत्तरशास्त्र), इतिहास, पुराण तथा वैद्यकशास्त्र में इस संस्कृत भाषा का प्रयोग होता है प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000 009

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