Book Title: Prakrit Vidya 2000 04
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 44
________________ किया। संस्थानों से पत्राचार कर तथा उनके कार्यकलापों को एकत्रित कर रिपोर्ट तैयार करने में कुछ समय अवश्य लग गया; किन्तु जब मैंने तैयार कर अपने सुझावों के साथ उसे उन्हें प्रेषित की, तो तुरन्त ही उसकी प्राप्ति-सूचना देते हुए उन्होंने बड़ा आभार माना। उस समय दिल्ली के 'महावीर-मेमोरियल' का निर्माण कार्य सम्पन्न हुआ ही था और उसको वे अन्तर्राष्ट्रिय स्तर के शोध एवं सन्दर्भ-केन्द्र के रूप में विकसित करना चाहते थे, किन्तु जहाँ तक मुझे जानकारी है कुछ अन्तर्विरोधों या अन्य किन्हीं कारणों से वे सम्भवत: वैसा नहीं कर सके। 'प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली' की स्थिति सन् 1980 के दशक में चिन्ताजनक हो रही थी। वे उसे एक उन्नत एवं पूर्ण विकसित राष्ट्रिय स्तर के प्राकृत एवं जैन शोध-संस्थान के रूप में देखना चाहते थे; किन्तु बिहार की गिरती राजनैतिक स्थिति के कारण वे चाहकर भी उसके विकास के लिये कुछ न कर पाये, उन्हें इसका अत्यन्त दु:ख रहा। श्रद्धेय साहू शान्तिप्रसाद जी के दु:खद निधन के बाद कुछ ऐसा अनुभव होने लगा था कि उनके रिक्त-स्थान की पूर्ति लगभग असम्भव है। किन्तु साहू अशोक जी ने सम्भवत: उनकी दाह-क्रिया के समय यह संकल्प लिया था कि पिताजी के निधन के बाद वे उनके अधूरे कार्यों को पूर्ण करने का प्रयत्न करेंगे। और, इसमें सन्देह नहीं कि चाहे सामाजिक गौरव-की अभिवृद्धि का प्रश्न हो, चाहे जैन तीर्थों की सुरक्षा का प्रश्न हो, चाहे जैन-प्रतिभाओं के विकास का प्रश्न हो या जिनवाणी के उद्धार का प्रश्न हो, उन्होंने हर प्रकार से उनकी प्रगति एवं विकास की दिशा में अनवरत कार्य करते रहे। साहू अशोक जी प्रारम्भ से ही स्वाध्यायशील एवं आत्मचिन्तक थे। आयुष्यवृद्धि के साथ-साथ उनकी यह प्रवृत्ति गहराती ही गई। वे परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी के परम भक्त थे। वे उनके दर्शनों के लिये निरन्तर ही व्यग्र रहा करते थे और उन्हें जब भी समय मिलता, वे प्रात:काल कुन्दकुन्द भारती अथवा जहाँ कहीं भी आचार्यश्री विराजमान रहते, वहाँ आकर पूज्य आचार्यश्री के चरणस्पर्श करते और अपनी कुछ आध्यात्मिक, ऐतिहासिक या सामाजिक उत्थान-सम्बन्धी शंकायें उनके सम्मुख समाधान-हेतु प्रस्तुत करते। ऐसे प्रसंगों में मुझे भी कभी-कभी उनके साथ बैठने का सौभाग्य मिलता रहा। एक बार अशोक जी बहुत ही प्रमुदित मुद्रा में थे। उन्होंने आचार्यश्री से प्रश्न किया कि "रहस्यवाद क्या है?" आचार्यश्री ने उसी मुद्रा में उत्तर भी दिया और कहा कि "रहस्यवाद है गूंगे का गुड़” । इस सहज प्रश्नोत्तरी से मानों हँसी का एक फव्वारा ही फूट पड़ा। बाद में आचार्यश्री ने स्वानुभूति की गहराईपूर्वक एक चतुर चितेरे की भाँति आत्मा 0042 प्राकृतविद्या- अप्रैल-जून '2000

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