Book Title: Prakrit Vidya 2000 04
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 93
________________ उन्हें यह शरीर सप्त-धातु से निर्मित, महादुर्गंध से परिपूर्ण दिखाई देता है; इसलिए उन्हें आश्चर्य होता है कि कोई उसमें आसक्त क्यों हो जाता है? अपनी ‘शत अष्टोत्तरी' में वे आगे कहते हैं कि “ऐसे घिनौने अशुद्ध शरीर को शुद्ध कैसे किया जा सकता है? शरीर के लिए कैसा भी भोजन दो, पर उससे रुधिर, मांस, अस्थियाँ आदि ही उत्पन्न होती हैं। इतने पर भी वह क्षणभंगुर बना रहता है। पर अज्ञानी मोही व्यक्ति उसे यथार्थ मानता है। ऐसी मिथ्या बातों को वह सत्य समझ लेता है।" इसीलिए वे सुख-दु:ख के कारणभूत स्वयंकृत कर्मों की निर्जरा करने की सलाह देते हैं; क्योंकि कर्म ही जीव को इधर से उधर त्रिभुवन में नचाता रहता है। अपनी 'पुण्य-पचीसिका' और 'नाटकपचीसी' में वे करुणार्द्र होकर कह उठते हैं कि धुयें के समुदाय को देखकर गर्व कौन करेगा? क्योंकि पवन के चलते ही वह समाप्त हो जाने वाला है। संध्या का रंग देखते-देखते जैसे विलीन हो जाता है, ओस बूंद जैसे धूप के निकलते ही सूख जाती है। उसीप्रकार कर्म जाल में फंसा मूढ जीव दु:खी बना रहता है“धूमन के धौरहर देख कहा गर्व करै, ये तो छिन-मांहि जाहिं पौन परसत ही। संध्या के समान रंग देखत ही होय भंग, दीपक पतंग जैसे काल गरसत ही।। सुपने में भूप जैसे इन्द्र-धनु रूप जैसे, ओस-बूंद जैसें दुरै दरसत ही। ऐसोई भरम जब कर्मजाल वर्गणा को, तामें मूढ मग्न होय मरै बरसत ही।।" इसीलिए वे चेतन को उद्बोधित करते हुए कहते हैं—“अरे क्रोधादि कषायों के वशीभूत होकर दर-दर भटक गये...... । अष्ट-मदों से तुम खूब खेले और धन-धान्य, पुत्रादि इच्छाओं की पूर्ति में लगे रहे। पर ये सब सुख मात्र सुखाभास हैं, क्षणिक हैं, तुम्हारा साथ देने वाले नहीं" (ब्रह्मविलास, पृ० 39-44)। ___ मोह के भ्रम से ही अधिकांश कर्म किये जाते हैं। मोह को चेतन और अचेतन में कोई भेद नहीं दिखाई देता। मोह के वश किसने क्या किया है। इसे 'मोह-भ्रमाष्टक' में पुराण कथा का आधार लेकर भगवतीदास ने सूचित किया है। आगे वे कहते हैं—“मेरे मोह ने मेरा सब कुछ बिगाड़ कर रखा है। कर्म-रूप गिरिकन्दरा में उसका निवास रहता है। उसमें छिपे हुए ही वह अनेक पाप करता है, पर किसी को दिखाई नहीं देता।" अंतिम पंक्तियों में वे कहते हैं कि “इन सभी विकारों को दूर करने का एकमात्र उपाय जिनवाणी है . "मोह मेरे सारे ने बिगारे आन जीव सब, जगत के बासी तैसे बासी कर राखे हैं। कर्म-गिरि-कन्दरा में बसत छिपाये आप, करत अनेक पाप जात कैसे भाखे हैं।" अध्यात्मसाधक भगवतीदास ने धार्मिक बाह्याडम्बरों/क्रियाओं को परमात्म-पद प्राप्ति में बाधक माना है; इसलिए उन्होंने बाह्य क्रियाओं को ही सब कुछ माननेवालों से प्रश्न किये कि “यदि मात्र जल स्नान से मुक्ति मिलती हो, तो जल में रहने वाली मछली सबसे प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000 0091

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