________________
अध्यात्मसाधक भैया भगवतीदास एवं उनका 'ब्रह्म विलास'
–(डॉ०) श्रीमती पुष्पलता जैन हिन्दी के संत-साहित्य का गौरव बढ़ाने और उसकी श्रीवृद्धि करने वाले कवियों की श्रृंखला में भैया भगवतीदास एक मज़बूत कड़ी के रूप में प्रख्यात रहे हैं। हिन्दी-साहित्य के रीतिकालीन कवि केशव, बिहारी आदि जहाँ रीतिबद्ध श्रृंगारिक रचनायें प्रस्तुत कर रहे हों, ऐसे रसिक वातावरण में अध्यात्म और नैतिकता का संदेश देना वास्तव में बड़ा दुष्कर कार्य था। ऐसे परिवेश में अध्यात्म की ज्योति जलानेवाले भैया भगवतीदास अपने समकालीन कवियों में इसीलिए अप्रतिम थे।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी, अध्यात्मरसिक भैया भगवतीदास का जन्म सं० 1731 को आगरा के 'ओसवाल' समाज के 'कहारिया गोत्र' में हुआ था। वे बहुभाषाविद् थे, वे न केवल प्राकृत-संस्कृत के विद्वान् थे; वरन् हिन्दी, गुजराती, बंगला तथा अरबी-फारसी पर भी अपना विशेष अधिकार रखते थे। 'ब्रजभाषा' के साथ अपनी प्रांतीय भाषा 'मारवाड़ी' के शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग उनके काव्य में सहज ही देखा जा सकता है, जिससे उनकी भाषा में प्रांजलता और अर्थ ग्रहण करने की सामर्थ्य आ गयी है। ___ अधिकांश पच्चीसी' और 'बत्तीसी' नामान्त रचनायें भैया भगवतीदास ने ही लिखीं हैं। 'पच्चीसी' और 'बत्तीसी' सहित 67 रचनायें 'ब्रह्मविलास' नामक ग्रंथ में संकलित हैं। ब्रह्मविलास का प्रकाशन पहली बार सन् 1903 में 'जैनग्रंथ रत्नाकर, बम्बई' से हुआ था। इसकी सभी रचनायें अध्यात्म और भक्ति से सराबोर हैं। अध्यात्म-विद्या में परिपक्व होने के कारण शांत-भाव की भक्ति के अनूठे दृष्टांत इन रचनाओं में प्रचुर मात्रा में समाहित हैं।
उच्चकुल में पले-पुसे भैया भगवती के जीवन में लक्ष्मी का वास होते हुए भी वीतराग प्रभु के चरणों में आत्मसमर्पण भाव कूट-कूट कर भरा था। वे प्रतिदिन आध्यात्मिक ग्रंथों का स्वाध्याय और तदनुसार धर्माचरण में रत रहते थे। उस सामंतवादी युग में 'भैया' जैसे अध्यात्मरसिक विरल ही थे।
चूँकि इस काल में तीन और 'भगवतीदास' नाम के विद्वानों का उल्लेख स्व०
प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000
40 89