Book Title: Prakrit Vidya 2000 04
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 89
________________ अन्तराल 48/61 योजन है । इसके गमन के कारण ही दिन और रात्रि की व्यवस्था होती है। गति करते-करते जब क्षेत्र - विशेष में प्रकाश होता है, वहाँ दिन होता है; तब ठीक उसके पीछे के हिस्से में रात्रि होती है । इसीकारण भारत में दिन है, तो अमेरिका में रात्रि आदि प्रकार से समझा जा सकता है। 'चन्द्रग्रहण' और 'सूर्यग्रहण' का कारण आचार्य यतिवृषभ ने सुस्पष्ट किया है। राहु के दो भेद है, पर्व- राहु और दिन- राहु । पर्व- राहु-नियम से गति-विशेष के कारण छह मास में पूर्णिमा के अन्त में चन्द्र- बिम्बों को आच्छादित कर हैं, उस दिन चन्द्रग्रहण होता है । यह पर्व - राहु चन्द्र - विमान से ठीक 4 अंगुल नीचे स्थित है। इसीप्रकार केतु-विमान भी गति-विशेष के कारण छह मासों में अमावस्या के अन्त में सूर्य-विमान को आच्छादित करता है, इसकारण सूर्यग्रहण होता है । यह केतु - विमान भी 4 अंगुलीचे स्थित है । 'उत्तरायण' और 'दक्षिणायन' का ज्ञान भी सूर्य की गति से होता है। जब सूर्य प्रथम गति से अर्थात् प्रथम चक्कर से क्रमश: आगे बढ़ता है, तब दक्षिणायन होता है। जब सूर्य अन्तिम चक्कर से पुन: पूर्व के चक्कर की ओर क्रमश: आता है, तब उत्तरायन होता है । इसप्रकार सूर्य और चन्द्रमा के अतिरिक्त अन्य सभी ग्रह-नक्षत्र और तारागण भी गतिशील हैं; जैसाकि तत्त्वार्थसूत्रकार ने कहा है “ मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके” अर्थात् सभी ज्योतिषी मेरु के चारों ओर निरन्तर घूमते हैं । किन्तु इनकी गति में विशेषता होती है कि चन्द्र से सूर्य, सूर्य से ग्रह, ग्रहों से नक्षत्र और नक्षत्रों से भी तारागण शीघ्र ही गति करनेवाले हैं । उपर्युक्त विवेचन से 'पृथ्वी घूमती है' वैज्ञानिकों की यह मान्यता नितरां खण्डित होती है। पृथ्वी घूमती है, इसका निर्णय प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भी नहीं होता है; जबकि ज्योतिषी देवों के भ्रमण का प्रभाव कालगणना, ज्योतिषशास्त्र की विधि आदि स्पष्टरूप से दृष्टिगोचर होता है। इन सभी ज्योतिषी देवों के विमान मेरु से 1121 योजन दूर- क्षेत्र में गमन करते हैं। 1 इतना मात्र ही अन्तरिक्ष नहीं है, किन्तु सिद्धलोक और स्वर्ग की व्यवस्था भी इसी में आती है; क्योंकि आचार्य यतिवृषभ के अनुसार मेरुतल से लेकर सिद्धलोकत ऊर्ध्वलोक की संज्ञा है, जो 7 राजू प्रमाण है । मेरु की चूलिका से उत्तम - भोग भूमि के मनुष्य के एक बाल के अन्तराल के बाद स्वर्गों का प्रारम्भ है । सौधर्म, ईशानादि सोलह स्वर्ग विमान है। उसके बाद नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पांच अनुत्तर विमान है लोक के अंत में 1575 धनुष - प्रमाण 'तनुवातवलय', एक कोश - प्रमाण 'घनवातवलय', 2 कोश-प्रमाण ‘घनोदधि वातवलय' है अर्थात् 425 धनुष कम एक योजन क्षेत्र में 'उपरिम वातवलय' है । इसके नीचे 'सिद्धशिला' है । सिद्धशिला से 12 योजन नीचे 'सर्वार्थसिद्धि' विमान का ध्वजदण्ड है। इसतरह सि०प० के अनुसार मेरु-तल से लेकर सिद्धलोक - पर्यन्त 'ऊर्ध्वलोक' अर्थात् अन्तरिक्ष है । खगोल-वैज्ञानिक इस अनुसंधान में लगे हुए हैं कि अन्तरिक्ष में ग्रहों पर जीवन जी प्राकृतविद्या�अप्रैल-जून '2000 87

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