Book Title: Prakrit Vidya 2000 04
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 46
________________ पहिचान क्या है?" हम लोगों ने यह सोचकर कि इन्होंने केवल शिष्टाचारवश या सामान्य जानकारी प्राप्त करने की दृष्टि से ही यह प्रश्न किया है । अतः चलते-चलते उन्हें संक्षेप कुछ बतला दिया। किन्तु हम लोग उस समय आश्चर्यचकित रह गये, जब उन्होंने पूज्य आचार्यश्री के प्रति विनयांजलि के प्रसंग में शौरसेनी प्राकृतभाषा और साहित्य के विषय में एक रोचक प्रवचन ही प्रस्तुत कर दिया । साहू अशोक जी तीर्थराज सम्मेद शिखर को जैन संस्कृति, इतिहास एवं जैनसमाज का प्राचीनतम शास्त्रीय महाकाव्य मानकर चलते रहे और अपने मृत्यु - पूर्वकाल तक उसे एक राष्ट्रिय धरोहर मानकर उसके विकास के लिये उन्होंने जो कुछ किया, उससे सारा राष्ट्र पूर्णतया अवगत है 1 साहू अशोक जी एवं उनके परिवार के कार्य-कलापों को देखकर 13वीं सदी के देश-विदेश में विख्यात महासार्थवाह साहू नट्टल का बरबस स्मरण आ जाता है, जो कि दिल्ली के निवासी थे। वे श्रावक - शिरोमणी, तीर्थभक्त, जिनवाणी - रसिक, समाजनेता, मुनिभक्त तथा साहित्य एवं साहित्यकारों के प्रति अनन्य आदर-स्नेहभाव रखते थे । उक्त दोनों परिवारों की मानसिकता तथा संरचनात्मक सहज - प्र - प्रवृत्तियों की तुलना करने से ऐसा प्रतीत होता है कि यह साहू - परिवार कहीं उक्त साहू नट्टल की वंश-परम्परा से सम्बन्धित तो नहीं? भौतिक रूप में आज भले ही साहू अशोक जी हमारे बीच नहीं हैं; किन्तु उनके बहुआयामी संरचनात्मक यशस्वी कार्यों की एक दीर्घ श्रृंखला हमारे सम्मुख है, जो आगामी पीढ़ी के लिए प्रेरणा-स्रोत का कार्य करेगी। उनके यशस्वी व्यक्तित्व के निर्माण में उनकी सहधर्मिणी यशस्विनी एवं चिन्तनशीला आदरणीया इन्दु जी जैन के योगदान को भी विस्मृत नहीं किया जा सकता। दोनों ही वस्तुत: एक दूसरे के पूरक थे; किन्तु दुर्भाग्य से साहू अशोक जी के बाद उनके समस्त उत्तरदायित्वों का बोझ अकेले ही इन्दुजी पर आ पड़ा है, फिर भी उन्होंने अभी तक जिस धैर्य, जिस कौशल, जिस साहस, जिस निर्भीकता एवं दूरदृष्टि से कार्यों का संचालन किया है, और वर्तमान में भी कर रही है उससे पूर्ण विश्वास है कि वे निरन्तर ही उसी स्फूर्ति से दृढ़ संकल्प के साथ उन कार्यों को आगे भी संचालित करती रहेंगी और सामाजिक इतिहास के निर्माण में मील - पत्थर सिद्ध होंगी । श्री कुन्दकुन्द भारती के साथ प्रारम्भ से ही साहू-परिवार के, विशेष रूप से श्री साहू अशोक जी के घनिष्ठ सम्बन्ध रहे हैं । अतः कुन्दकुन्द भारती ने अपने प्रांगण में उनका एक कलापूर्ण भव्य स्मारक बनाने का निर्णय लेकर उनके प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करने का प्रयत्न किया है, और वह उनके सत्कार्यों के इतिहास के लेखन का प्रथम अध्याय सिद्ध होगा, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है । 44 ܀܀ प्राकृतविद्या+अप्रैल-जून '2000

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