Book Title: Prakrit Vidya 2000 04
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

View full book text
Previous | Next

Page 63
________________ वंश' से संबंधित है तथा श्रमण-परम्परा का प्रतिनिधित्व करती है। इसके प्रमुख प्रतिनिधि (1) ऋषभजिन, (2) भगवान् बाहुबलि रहे हैं। आगे की 16 सन्धियाँ विद्याधर-वंश से सम्बन्धित हैं। वैसे तो विद्याधर-वंश भी इक्ष्वाकुवंशी ऋषभदेव द्वारा ही स्थापित किया गया है।) इस विद्याधर-वंश से ही श्रेष्ठ व हीनता की भावना से ग्रसित राक्षस एवं वानर-वंशों का उद्भव हुआ। यह विद्याधर-वंश ही अपने समस्त विभाजित वर्गों सहित वैदिक-परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है। इस वैदिक-परम्परा के प्रमुख प्रतिनिधि इन्द्र (दवेन्द्र नहीं), रावण व बालि रहे हैं; जो क्रमश: विद्याधर, राक्षस व वानर वंश का प्रतिनिधित्व करते हैं। ___इन दोनों परम्पराओं के प्रतिनिधियों को भाव या नैतिकता के आधार पर दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम वर्ग में है— ऋषभजिन, बाहुबलि, बालि। दूसरे वर्ग में है— भरत, इन्द्र, रावण। ऋषभजिन अनेकों विद्याओं के ज्ञाता होते हुए भी अपने शुद्धस्वभाव में स्थित हैं। बाहुबलि व बालि दोनों ही ऐसे विशिष्ट पात्र हैं, जिन्हें स्वचेतना की किंचित् भी परतन्त्रता मान्य नहीं है। प्रत्येक मनुष्य की समानता व स्वतन्त्रता के उद्घोषक इनके मन में सभी के प्रति सम्मानभाव का उदय होता है। ऐसे व्यक्ति वैयक्तिक अभ्युदय के बजाय सर्वोदय के इच्छुक होते हैं तथा सभी तरह के भयों से मुक्त एवं निर्भीक हो तनावमुक्त व शान्तियुक्त जिंदगी जीते हैं। बालि उस वानरवंश' के शक्तिशाली प्रतिनिधि हैं, जिस वंश में बालि के होने से पहले कोई प्रतापी राजा नहीं हुआ था; अत: ये कभी विद्याधर-वंश' के राजाओं से अपमानित होते थे, तो कभी राक्षसवंशी राजाओं की अधीनता में जीते थे। ___दूसरे वर्ग में इन्द्र (एक पृथ्वी का राजा) उस 'विद्याधर वंश' का प्रतिनिधि राजा है, जो इक्ष्वाकुवंशीय राजा से ही आश्रय एवं विद्या ग्रहण कर अपने आपको शक्तिशाली विद्याधर मानने लगा। उसकी इस ही प्रवृत्ति से आभास होता है कि शायद वैदिक-परम्परा में अपने आपको श्रेष्ठ माननेवालों ने 'आर्य' शब्द भी श्रमण-परम्परा से ही ग्रहण किया धीरे-धीरे इन विद्याधरों में शासन करने की प्रवृत्ति बढ़ती गयी। कुछ समय तक तो ये राजा इस शासन-प्रवृत्ति में सफल रहे; किन्तु आगे राक्षसवंश में रावण के शक्तिशाली होने.पर दोनों में एक-दूसरे को अधीन करने की होड़ लग गयी। वानरवंश में अभी तक कोई इतना शक्तिशाली राजा नहीं था। विद्याधर-वंश व राक्षसवंश चाहते थे कि यह शक्तिहीन वानरवंश उन्हीं के लिए जिये। ___ अब आगे 'विद्याधर काण्ड' में कवि स्वयंभू द्वारा निर्दिष्ट उन सभी घटनाचक्रों का उल्लेख करने का प्रयास किया जा रहा है, जिससे अपने भारत देश की संस्कृति से परिचित होकर उसको अधोगामी होने से रोक सकें तथा उन्नयन में योगदान दे सकें। प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000 10 61

Loading...

Page Navigation
1 ... 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116