Book Title: Prakrit Vidya 2000 04
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 60
________________ 'षट्खण्डागम' (1/1/1 पृ० 86-90) में 'अर्थनय' और 'व्यंजननय' —ये दो नय के भेद करने के उपरान्त विवेचनकार ने “शब्द: समभिरूढ़ एवंभूत इति ।" से शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत — इन तीन नयों को व्यंजननय में रखा गया है। "शब्दपृष्ठतोऽर्थग्रहणप्रवण: शब्दनय ।” अर्थात् शब्द के आधार से अर्थ के ग्रहण करने में समर्थ 'शब्दनय' है। इसमें लिंग, संख्या, काल, कारक, पुरुष और उपग्रह के व्यभिचार की निवृत्ति होती है। विवेचनकार ने इस पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। शब्द-भेद से जो नाना अर्थों में अभिरूढ़ होता है, उसे 'समभिरूढ़' कहा जाता है। इसमें इन्द्र, पुरन्दर और शक्र तीनों पर्यायवाची हैं; पर तीनों का अर्थ अलग-अलग है। अत: 'नय' की भाषा में पर्यायवाची शब्द, शब्द तो होते हैं; पर वे भिन्न-भिन्न अर्थों से अलंग-अलग हैं —ऐसा भी आभास कराते हैं। इसी तरह ‘एवंभूतनय' जिस शब्द का जो वाच्य है, वह तदरूप क्रिया से परिणत समय में ही पाया जाता है। उसे जो विषय करता है, उसे 'भूतनय' कहते हैं। इस नय की दृष्टि में पदों का समास नहीं हो सकता; क्योंकि भिन्न-भिन्न कालवर्ती और भिन्न-भिन्न अर्थ वाले शब्दों में एकपने का विरोध है। 'धवला' टीकाकार की यह भाषा- दृष्टि भाषा के उस भेद पर प्रकाश डालती है; जिसमें लिंग, कारक, संख्या, काल, पुरुष आदि का वैशिष्ट्य बना रहता है। कहा है"ततो यथालिंगं यथासंख्यं यथासाधनादि च न्यायमभिधानमिति।" -(धवला पृ० 90) अर्थात् समान लिंग, समान संख्या, समान साधन आदि का कथन करना समीचीन माना गया है। शब्द वचन पर आधारित होते हैं अर्थात् जितने वचन-व्यवहार हैं, उतने ही नयवाद हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि वाक्य, वचन, पद आदि व्यवहार से जिस रूप को प्राप्त होते हैं; वहीं द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से उसी रूप को प्राप्त हो जाती है। भाषा का विषय व्यापक है। यदि उसे क्षेत्र की दष्टि से देखा गया, तो शूरसेन के क्षेत्र मथुरा एवं उसके आसपास सीमावर्ती स्थानों पर जो भाषा का स्वरूप हजारों वर्ष पहले प्राप्त होता है, वह अपने आप ही 'शौरसेनी भाषा' अर्थात् एक ऐसी प्राकृत भाषा का उल्लेख कर जाता, जिसमें षट्खण्डागम, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार आदि पाहुडग्रन्थ, षट्खण्डागम एवं उसकी धवला आदि टीकायें, तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, द्रव्यसंग्रह, गोम्मटसार आदि ग्रन्थों एवं ग्रन्थकारों के प्रयोगों का भी आभास है। अर्द्धमगध क्षेत्र एवं उसके आसपास में बोली जाने वाली भाषा 'अर्द्धमागधी' और सम्पूर्ण मगध के जनसाधारण व्यक्तियों के द्वारा बोली जाने वाली भाषा ‘मागधी' और सम्पूर्ण प्राकृत व्याकरण के विकास के आधार पर व्यापक क्षेत्र की भाषा 'महाराष्ट्री' ने अपना स्थान बनाया। कहने का तात्पर्य यह है कि भाषा का अपना स्वरूप पृथक्-पृथक् होता गया। उसमें भाव और प्रक्रिया के नियम ने जो स्वरूप प्रदान किया, वही भाषा 00 58 प्राकृतविद्या-अप्रैल-जून '2000

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