Book Title: Prakrit Vidya 2000 04
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 29
________________ फिर भी भौगोलिक दृष्टि से यह उचित है। वैदिक काल से ही पूर्वी और पश्चिमी बोलियों में भेद बराबर बना रहा है। डॉ० ग्रियर्सन का विचार स्पष्ट है कि पश्चिमी प्राकृत में मुख्य शौरसेनी' है, जो शूरसेन या गांगेय-दोआब तथा निकटवर्ती प्रदेश के मध्यवर्ती क्षेत्र की भाषा है। ___ यह एक आश्चर्यजनक तथा विश्वसनीय तथ्य है कि दिगम्बर जैन आगम-ग्रन्थों या श्रुत-जिनवाणी अथवा उनकी आनुपूर्वी में रचे गये अधिकतर ग्रन्थों की भाषा 'शौरसेनी' है। दक्षिण भारत में ई०पू० तृतीय शताब्दी लगभग से लेकर प्रथम-द्वितीय शताब्दी के सम्राट अशोक के तथा अन्य शिलालेखों के उपलब्ध होने से यह निश्चित होता है कि उस युग में प्राकृत का ही प्रमुख प्रचलन था। 'कसायपाहुडसुत्त' की भाषा से तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने आचार्य गुणधर के भावों का ही नहीं, भाषा का भी संयोजन तथा अनुगमन किया है।" पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री के शब्दों में "कुन्दकुन्द के उपलब्ध ग्रन्थों में ‘पंचास्तिकाय', 'प्रवचनसार', 'समयसार', 'नियमसार' और 'अष्टपाड' अतिप्रसिद्ध हैं। इन सबकी भाषा शौरसेनी प्राकृत है।" शौरसेनी प्राकृत के सामान्य नियम इसप्रकार हैं (1) अनादि में विद्यमान असंयुक्त 'त' को 'द' होता है। जैसे—'धातु' के स्थान पर 'धातु' (पंचास्तिकाय 78), संघाद, णियद (पंचा० 79), परिणदं (पंचा० 84), पसजदि (पंचा० 94), चेदण (पंचा० 97), जीविद (पंचा० 30), चेदग (पंचा० 68), अविदिद (प्रवचन० 57), तदा, तदिय, आपदण (बोधo 5, 6), चेदय (बोध० 7), सब्भूद (प्रवचन० 18) समक्खाद (प्रवचन० 36),समस्सिद (समाश्रित, प्रवचन० 65), समदा (समता, नियम० 124), समभिहद (प्रवचन० 30) इत्यादि। (2) किसी भी शब्द के प्रारम्भ में स्थित 'त' वर्ण को 'द' नहीं होता। उदाहरण के लिए- तण (तृण), तुम्ह, तुरिय, तेल, तोच, तणू (तनु), तच्च (तत्त्व), तत्तो आदि । (3) विकल्प से कहीं-कहीं आदि के 'त' को 'द' हो जाता है। जैसेकि— दाव (तावत्)। (4) क्रिया-रूपों में शौरसेनी में संस्कृत के 'ति', 'ते' प्रत्यय के स्थान पर 'दि', 'द' का प्रयोग होता है। यथा- हसदि (हसति), भण्णदे (समय० 66), कुणदि (बोध 56), कुव्वदि (स० 301), खणदि (लिंग० 15) पडिवज्जदि (पंचा० 137), धुद (त्यक्त) (निर्वाणभक्ति 2), घिप्पदि (समय० 296), करेदि (समय० 230), गच्छदि (नियम० 182), लिप्पदि (बोध० 46), परिणभदि (समय० 76), उप्पज्जदे (समय० 217), उप्पज्जदि (समय० 76-79), सेवदि (लिंग 7) णस्सदि (पंचा० 17), विज्जदि (प्रवचन० 17), णादि (पंचा० 162), णादेदि (समय० 189), णासदि (सुत्त० 34), णासेदि (समय० 158, 159); णिग्गहिदा (पंचा० 141), णिग्गदो (समय० 47), णिज्जदु (समय० 209), प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000 2027

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