Book Title: Prakrit Vidya 2000 04
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 21
________________ 13. डॉ० सुषमा सिंघवी (उदयपुर) – Some special features of Katantra Grammar 14. डॉ० रमेश कुमार पाण्डेय (दिल्ली) – कातंत्र-व्याकरण का नाट्यशास्त्र पर प्रभाव : एक अनुशीलन 15. प्रो० धर्मचन्द्र जैन (कुरुक्षेत्र) - कातंत्र-व्याकरण एवं उसकी उपादेयता 16. प्रो० एम०डी० बसंतराज (मैसूर) – कातन्त्र-व्याकरण इन दि व्यू ऑफ जैन ट्रेडीशन 17. डॉ० अश्विनी कुमार दास (दिल्ली) – पाणिनीय व्याकरण और कातन्त्र-व्याकरण का तुलनात्मक वैशिष्ट्य 18. डॉ० रमेशचन्द्र जैन (बिजनौर) – कातन्त्र व्याकरण : पाणिनीय व्याकरण के आलोक में। चारों सत्रों में आचार्यश्री विद्यानन्द जी की कातन्त्र-व्याकरण-सम्बन्धी विचारोत्तेजक समीक्षाओं के अतिरिक्त भी बीच-बीच में आकस्मिक सरस एवं रोचक टिप्पणियों तथा अन्त्य-मंगल के रूप में कातन्त्र-व्याकरण के वैशिष्ट्य एवं वर्तमान वैज्ञानिक सन्दर्भो में उसकी महत्ता तथा उपयोगिता पर प्रकाशन डालने से उपस्थित विद्वान् तथा श्रोतागण मन्त्रमुग्ध होते रहे। निबन्ध-वाचन 4 सत्रों में सम्पन्न हुआ, जिनमें अध्यक्षता क्रमश: (1) प्रो० (डॉ०) वाचस्पति उपाध्याय, कुलपति, (नई दिल्ली), (2) डॉ० सत्यरंजन बनर्जी (कलकत्ता), (3) प्रो० (डॉ०) नामवर सिंह (सुप्रसिद्ध समालोचक एवं प्राच्य भाषाविद, नई दिल्ली), (4) प्रो० डॉ० प्रेमसिंह (सुप्रसिद्ध भाषाविद्, नई दिल्ली) ने की। सत्रों का संचालन क्रमश: डॉ० सुदीप जैन, प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन, प्रो० (डॉ०) प्रेमसुमन जैन तथा डॉ० सुदीप जैन ने किया। सेमिनार के निष्कर्षों एवं भावी योजनाओं पर डॉ० सुदीप जैन ने प्रकाश डाला। सेमिनार में पठित उक्त बहुआयामी शोध-निबन्धों का प्रकाशन भी शीघ्र किया जायेगा, जिससे प्राच्यविद्या-रसिक विद्वानों को उसकी गरिमा का परिचय मिल सके। मध्यकालीन भारतीय इतिहास के अध्ययन से विदित होता है कि यह काल राजनैतिक अस्थिरता का काल अवश्य था, फिर भी सामाजिक एवं साहित्यिक चेतना उस समय भी सर्वथा लुप्त न हो सकी थी। जनता में स्वाभिमान के साथ-साथ अपने राष्ट्र, समाज एवं साहित्यिक अभ्युदय के प्रति मांगलिक भावना स्थिर थी। ‘मालवा' के प्रमुख सांस्कृतिक-केन्द्र 'उज्जयिनी' नगरी पर चालुक्यवंशी नरेश सिद्धराज जयसिंह ने आक्रमण कर जब उसे पराजित किया और उस पर अपना अधिकार किया, तो नगर-परिक्रमा के क्रम में उसने उज्जयिनी के विशाल ग्रन्थागार का भी अवलोकन किया। उसमें सावधानीपूर्वक अत्यन्त सुरक्षित एक ऐसे ग्रन्थ की ओर उसका ध्यान गया, जिसके वेष्ठन पर लिखा था प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000 00 19

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