Book Title: Prakrit Vidya 2000 04
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 22
________________ ‘मालवा का गौरव-ग्रन्थ' । जब उसे उसने खोलकर देखा, तो बहुमूल्य हीरे-मोतियों से जटित एक हस्तलिखित ग्रन्थ मिला वह राजा भोजराज कृत 'सरस्वतीकण्ठाभरण' नाम का व्याकरण-ग्रन्थ था, तथा सार्वजनिक स्वीकृति के साथ उसे 'मालवा का गौरव ग्रन्थ' घोषित किया गया था । सिद्धराज जयसिंह उसे देख - पढ़कर हक्का-बक्का रह गया । मालवा का गौरव-ग्रन्थ तो हो, और गुजरात का गौरव-ग्रन्थ न हो -यह कैसे सम्भव है? वह अपनी राजधानी अणहिलपुर- पाटन वापिस आया। रात भर उसे नींद नहीं आई। अगले दिन वह अपने गुरुदेव आचार्य हेमचन्द्र के श्रीचरणों में लोट गया और अपने मन की व्यथा-कथा सुनाते हुए उसने कहा कि “गुरुदेव ! मुझे इस समय इस बात की अधिक प्रसन्नता नहीं है कि मैंने मालवा पर विजय प्राप्त कर ली। बल्कि मुझे तो इस बात का दुःख हो गया है कि मालवा के गौरव-ग्रन्थ के समान ही गुजरात का अभी तक कोई भी गौरव-ग्रन्थ नहीं लिखा गया? इस कमी से मैं ही नहीं, बल्कि हमारा सारा गुजरात-देश अपमानित होने का अनुभव कर रहा है। अत: गुरुदेव ! अब आप ही इस अपमान से हमारे राज्य को उबार सकते हैं। आपकी सुविधानुसार सभी आवश्यक लेखनोपकरण सामग्री तैयार करा दी गई है । अत: आप यह कार्य शीघ्र ही सम्पन्न करने की महत्ती कृपा कीजिये ।" आचार्य हेमचन्द्र ने एकाग्रमन से कार्यारम्भ किया और लगभग एक वर्ष की अवधि में अपना सारा ग्रन्थ तैयार कर लिया, जिसका भरी विद्वत्सभा में आद्योपान्त्य वाचन किया गया और सर्वसम्मति से उसका नामकरण किया गया— - 'सिद्धहैमशब्दानुशासन' और हर्षध्वनिपूर्वक उसे 'गुजरात का गौरव - ग्रन्थ' के नाम से घोषित किया गया ।. इसप्रकार हमारी दृष्टि में अभी तक उक्त दो ग्रन्थ 'गौरव-ग्रन्थ रत्न' के रूप में आये हैं— (1) मालव-गौरव ग्रन्थरत्न, एवं ( 2 ) गुजरात-गौरव ग्रन्थरत्न । मध्यकालीन प्रमुख पाण्डुलिपियों के साथ-साथ कातन्त्र - व्याकरण की प्राचीन पाण्डुलिपियाँ भी चीन, मंगोलिया, तिब्बत, भूटान, अफगानिस्तान, बर्मा, सिलोन तथा अनेक योरोपीय देशों में पहुँचती रही हैं और वहाँ उन्होंने इतनी लोकप्रियता प्राप्त की कि उनमें से अनेक देशों में शिक्षा-संस्थानों के पाठ्यक्रमों में सदियों पूर्व से ही उसे स्वीकृत कर, उसका अध्ययन-अध्यापन - कार्य भी प्रारम्भ किया गया, जो वर्तमान में भी चालू है । उक्त देशों की स्थानीय भाषाओं में उस पर विविध टीकायें भी लिखी गई हैं और सर्वेक्षणों से विदित हुआ है कि अकेले विदेशों में ही उक्त ग्रन्थ-सम्बन्धी विभिन्न पाण्डुलिपियों की संख्या 300 के लगभग है । भारतीय प्राच्य शास्त्र - भण्डारों में भी अभी तक के सर्वेक्षणों के अनुसार उसकी मूल तथा उनकी विविध टीकाओं - सम्बन्धी पाण्डुलिपियों की संख्या लगभग एक सहस्र है । अब प्रश्न यह है कि उक्त 'सरस्वती - कण्ठाभरण' एवं 'सिद्धहैमशब्दानुशासन' तो केवल अपने-अपने राज्यों के गौरव - ग्रन्थरत्न के रूप में सम्मान्य थे; किन्तु 'कातन्त्र ☐☐ 20 प्राकृतविद्या— अप्रैल-जून '2000

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