Book Title: Prakrit Vidya 2000 04
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 16
________________ पर सूत्रनिर्दिष्ट विधि की प्रवृत्ति, 2. कहीं पर अप्रवृत्ति, 3. कहीं पर विकल्प से प्रवृत्ति तथा 4. कहीं पर सूत्रनिर्दिष्ट विधि की अपेक्षा किसी अन्य कार्य की प्रवृत्ति “क्वचित् प्रवृत्ति: क्वचिदप्रवृत्ति: क्वचिद् विभाषा क्वचिदन्यदेव । विधेर्विधानं बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति ।।" –(द्र०, व्याकरण-दर्शनेर इतिहास, पृ० 240, टि०, अभियुक्तवचन) जैसे— 'स्नान्ति अनेनेति स्थानीयं चूर्णम् । दीयते अस्मै इति दानीयो विप्रः ।' यहाँ अनीयर् प्रत्यय “तयोरेव कृत्यक्तखला:” (अ0 3/4/70) के निर्देशानुसार भाव-कर्म अर्थ में होना चाहिए, परन्तु उस अर्थ में प्रवृत्ति न होकर करण, सम्प्रदान कारक में हुई है। 'बहुल' के उक्त चार अर्थों में विभाषा' या 'विकल्प' अर्थ अधिक प्रसिद्ध है। आचार्य हेमचन्द्र ने आर्ष प्राकृत (अधिक प्राचीन या आगमिक प्राकृत) के विषय में कहा है कि उसमें प्राकृत के नियम विकल्प से प्रवृत्त होते हैं— “आर्षं प्राकृतं बहुलं भवति, तदपि यथा— स्थानं दर्शयिष्याम: । आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते।)” -('आर्षम्' 8/1/3 की वृत्ति) 6. हलन्त स्त्रीलिंग शब्दों के आकारान्त रूपों में समानता संस्कृत व्याकरण में आचार्य भागुरि के दो विशेष अभिमत समादृत हैं1. 'अव-अपि' उपसर्गों के अकार का लोप तथा 2. हलन्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों का दीर्घ आकारान्त होना। जैसे— अवगाह्य-वगाह्य, अपिधानम्-पिधानम् । वाच्-वाचा, दिश्-दिशा, निश्-निशा। “वष्टि भागरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः। आपं चैव हलन्तानां यथा वाचा निशा दिशा।।" प्राकृत में 'गिरा, धुरा, पुरा, अच्छरसा (अप्सरस्), दिसा, क्षुहा (क्षुध्), संपया (संपद्), तडिआ (तडित्), सरिआ (सरित्) आदि शब्दरूप उक्त नियम का ही अनुसरण करते हैं, भले ही कहीं अन्तिम 'र' को 'रा', 'स्' को 'सा' तथा 'त्' को 'आ' आदेश का विधान किया गया हो। 7. प्रकृतिभाव ___ संस्कृत-व्याकरण के अनुसार 'प्रगृह्यसंज्ञक' शब्दों में तथा 'प्लुत' में सन्धि नहीं होती है। एतदर्थ पाणिनि का सूत्र है- "प्लुतप्रगृह्या अचि नित्यम्” (अ० 6/1/125)। कातन्त्रकार ने बिना ही प्रगृह्यसंज्ञा' किए 'प्रकृतिभाव' का विधान किया है। 'वर्णसमाम्नाय' में प्लुतवर्णों का पाठ न होने से 'अनुपदिष्ट' पद के द्वारा उनका बोध कराया गया है। प्रथम सूत्र में आचार्य शर्ववर्मा ने ओकारान्त अ-इ-उ-आ निपातों का उल्लेख कर उनमें प्रकृतिभाव का निर्देश किया है- “ओदन्ता अ इ उ आ निपाता: स्वरे प्रकृत्या” – (कात०व्या० 1/3/1)। प्राकृतभाषा में प्रकृतिभावरूपी सन्धि-निषेध संस्कृत की अपेक्षा DD 14 प्राकृतविद्या अप्रैल-जून 2DDD

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