________________ चूर्णि में उन्होंने प्रश्नव्याकरण में पंचसंवरादि की व्याख्या होने का स्पष्ट निर्देश किया है। 26 इससे भी यह सिद्ध हो जाता है कि ईस्वी सन् 676 के पूर्व प्रश्नव्याकरण का पंचसंवरद्वारों से युक्त संस्करण प्रसार में आ गया था, अर्थात् आगमों के लेखनकाल के पश्चात् लगभग सौ वर्ष की अवधि में वर्तमान प्रश्नव्याकरण अस्तित्व में अवश्य आ गया था। प्रस्तुत प्रश्नव्याकरण की प्रथम गाथा, जिसमें वोच्छामि' कहकर ग्रंथ के कथन का निश्चय सूचित किया गया है, की रचना शेष सभी अंग आगमों के प्रारम्भिक कथन से बिलकुल भिन्न है। यह पांचवीं-छठवीं शताब्दी में रचित ग्रंथों की प्रथम प्राक्कथन गाथा के समान ही है। अतः, प्रस्तुत प्रश्नव्याकरण का रचनाकाल ईसा की छठवीं शताब्दी माना जा सकता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वह प्रश्नव्याकरण, जिसमें उसकी विषयवस्तु ऋषिभाषित की विषयवस्तु के समरूप थी, प्राचीनतम संस्करण है, जो लगभग ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी की रचना होगी, फिर ईसा की दूसरीतीसरी शताब्दी में उसमें निमित्तशास्त्र सम्बंधी विवरण जुड़े, जिनकी सूचना उसके स्थानांग के विवरण से मिलती है। इसके पश्चात् ईसा की चौथी शताब्दी में ऋषिभाषित आदि भाग अलग किए गए और उसे निमित्तशास्त्र का ग्रंथ बना दिया, समवायांग का विवरण इसका साक्षी है। इस काल में प्रश्नव्याकरण के नाम से वाचनाभेद से अनेक ग्रंथ अस्तित्व में थे, ऐसी भी सूचना हमें आगम साहित्य से मिल जाती है। लगभग ईसा की छठवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इन ग्रंथों के स्थान पर वर्तमान प्रश्नव्याकरण-सूत्र का आश्रव एवं संवर के विवेचन से युक्त वह संस्करण अस्तित्व में आया है, जो वर्तमान में हमें उपलब्ध है। यह प्रश्नव्याकरण का अंतिम संस्करण है। जहां तक प्रश्नव्याकरण के उपर्युक्त दो प्राचीन लुप्त संस्करणों की विषयवस्तु का प्रश्न है, उसमें से प्रथम संस्करण की विषयवस्तु अधिकांश रूप से एवं कुछ परिवर्तनों के साथ वर्तमान में उपलब्ध ऋषिभाषित (इसिभासियाई), उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग एवं ज्ञाताधर्मकथा में समाहित है। द्वितीय निमित्तशास्त्र सम्बंधी संस्करण की विषयवस्तु, जयपायड और प्रश्नव्याकरण के नाम से उपलब्ध अन्य निमित्तशास्त्रों के ग्रंथों में हो सकती