Book Title: Prakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 154
________________ मृदुल पादसंचारों से युक्त था, सुनने वालों के प्रीतिदायक था, शोभन समाप्ति से युक्त था। इस मधुर संगीत गान के साथ-साथ वादक अपने-अपने वाद्यों को भी बजा रहे थे। इस प्रकार वह दिव्य वादन और दिव्य नृत्य आश्चर्यकारी होने से अद्भुत तथा दर्शकों के मनोनुकूल होने से मनोज्ञ था। दर्शकों के कहकहों से नाट्यशाला को गुंजायमान् कर रहा था। तत्पश्चात् नृत्य-क्रीड़ा में प्रवृत्त उन देवकुमारोंऔर देवकुमारियों ने भगवान् महावीर एवं गौतमादि श्रमण निर्ग्रन्थों आदि के समक्ष स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त्त, वर्द्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य और दर्पण- इन आठ मंगलद्रव्यों का आकार-रूप दिव्य नाट्याभिनय दिखलाया। तत्पश्चात् दूसरी नाट्यविधि प्रस्तुत करने के लिए वे एकत्रित हुए एवं उन्होंने भगवान् महावीर एवं गौतम आदि निर्ग्रन्थों के समक्ष आवर्त्त, प्रत्यावर्त्त, श्रेणि, प्रश्रेणि, स्वस्तिक, सौवस्तिक, पुष्य, माणवक, वर्द्धमानक, मत्स्याण्डक, मकराण्डक, जार, मार, पुष्पावलि, पद्मपत्र, सागरतरंग, वासन्तीलता और पद्मलता के आकार की नाट्यविधि दिखलाई। उसके पश्चात् उन सभी ने भगवान् महावीर के समक्ष ईहामृग, वृषभ, तुरंग-अश्व, नर-मानव, मगर, विहग-पक्षी, व्याल-सर्प, किन्नर,रुरु, सरभ, चमर, कुंजर, वनलता और पद्मलता की आकृति रचना रूप दिव्य नाट्यविधि को प्रस्तुत किया। तदनन्तर उन्होंने एकतोवक्र, एक तश्चक्र वाल, द्विघातश्चक्रवाल- ऐसी चक्रार्ध-चक्रवाल नामक दिव्य नाट्यविधि प्रस्तुत की। इसी क्रम से उन्होंने चंद्रावलि, सूर्यावलि, वलयोवलि, हंसावलि, एकावलि, तारावलि, मुक्तावलि, कनकावलि, रत्नावलि की विशिष्ट रचनाओं से युक्त दिव्य नाट्यविधि का अभिनय किया। तत्पश्चात् उन्होंने चंद्रमा और सूर्य के उदय होने की रचनावली उद्गमनोद्गमन नामक दिव्य नाट्यविधि का प्रदर्शन किया। उसके पश्चात् आगमन नाट्यविधि अभिनीत की। तदनन्तर चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण होने पर गगनमण्डल में होने वाले वातावरण की दर्शक आवरणावरण नामक दिव्य नाट्यविधि का प्रदर्शन किया। इसके बाद अस्तमयनप्रविभक्ति नामक नाट्यविधि का अभिनय किया। उसके पश्चात् चंद्रमण्डल, सूर्यमण्डल, नागमण्डल, यक्षमण्डल, भूतमण्डल, राक्षसमण्डल, महोरगमण्डल और गंधर्वमण्डल की रचना से युक्त दर्शनमण्डलप्रविभक्ति नामक नाट्यविधि प्रस्तुत की। इसके पश्चात् वृषभमण्डल, सिंहमण्डल की ललित गति, अश्व गति और (150)

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