________________ (ढक्का), होरंभा (महाढक्का), भेरी (ढक्काकृति वाद्य), झल्लरी (चर्मविनद्धा विस्तीर्णवलयाकारा), दुन्दुभि (भेर्याकारा संकटमुखी देवातोद्य), मुरज (महाप्रमाण मंदल), मृदंग (लघु मर्दल), नंदीमृदंग (एकतः कंकीर्णः अन्यत्र विस्तृतो मुरजविशेषः), आलिग (मुरज वाद्यविशेष), कुस्तुंब (चर्मावनद्धपुटो वाद्यविशेषः), गोमुखी, मर्दल (उभयतः सम), वीणा, विपंजी (त्रितंत्री वीणा), वल्लकी (सामान्यतो वीणा), महती, कच्छभी (भारती वीणा), चित्रवीणा, बद्धीस, सुघोषा, नंदिघोषा, भ्रामरी, षड्भ्रामरी, वरवादनी (सप्ततंत्री वीणा), तूणा, तुम्बवीणा (तुंबयुक्त वीणा), आमोट, झंझा, नकुल, मुकुन्द (मुरज वाद्यविशेष), हुडुक्का, विचिक्की, करटा, डिंडिम, किणित, कडंब, दर्दर, दर्दरिका (यस्य चतुर्भिश्चरणैखस्थानं भुवि स गोधाचर्मावनद्धो, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, 101), कलशिका, महुया, तल, ताल, कांस्यताल, रिगिसिका (रिगिसिगिका, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति), लत्तिया, मगरिका, शिशुमारिका, वंश, वेणु, वाली (तूणविशेषः, स हि मुखे दत्वा वाद्यते), परिलि और बद्धक (पिरलीबद्धको तूणरूप वाद्यविशेषौ)। सूर्याभदेव द्वारा प्रस्तुत अभिनय का स्वरूप . सूर्याभदेव ने हर्षित चित्त से महावीर को वंदन कर निवेदन किया कि हे भदन्त! मैं आपकी भक्तिवश गौतम आदि निर्ग्रन्थों के सम्मुख इस दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति एवं दिव्य देवप्रभाव तथा बत्तीस प्रकार की नाट्यविधि को प्रस्तुत करना चाहता हूं। सूर्याभदेव के इस निवेदन पर भगवान् महावीर ने उनके कथन का न आदर ही किया और न उसकी अनुमोदना ही की, अपितु मौन रहे, तब सूर्याभदेव ने भगवान् महावीर से दो-तीन बार पुनः इसी प्रकार निवेदन किया और ऐसा कहकर उसने भगवान महावीर की प्रदक्षिणा की, उन्हें वंदन-नमस्कार कर उत्तर-पूर्व दिशा में गया। वैक्रियसमुद्घात करके बहुस्मरणीय भूमिभाग की रचना की, जो समतल था एवं मणियों से सुशोभित था। उस सम तथा रमणीय भूमि के मध्यभाग में एक प्रेक्षागृह (नाट्यशाला) की रचना की, जो सैकड़ों स्तम्भों पर सन्निविष्ट था। उस प्रेक्षागृह के अंदर रमणीय भूभाग, चंदोवा, रंगमंच तथा मणिपीठिका की रचना की और फिर उसने उस मणिपीठिका के.ऊपर पादपीठ, छत्र आदि से युक्त सिंहासन की रचना की, जिसका ऊर्व भाग