Book Title: Prakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 174
________________ सम्भवतः, उत्तराध्ययन में चार्वाकों के असत्कार्यवाद की स्थापना के पक्ष में ये सत्कार्यवाद की सिद्धि करने वाले उदाहरण इसीलिए दिए गए होंगे, ताकि इनकी समालोचना सरलतापूर्वक की जा सके। उत्तराध्ययन में आत्मा को अमूर्त होने के कारण इंद्रियग्राह्य नहीं माना गया है और अमूर्त होने से नित्य कहा गया है।१३ उपर्युक्त विवरण से चार्वाकों के संदर्भ में निम्न जानकारी मिलती है१. चार्वाकदर्शन को ‘लोकसंज्ञा' और 'जनश्रद्धा' के नाम से अभिहित किया जाता था। 2. चार्वाक दर्शन आत्मा को स्वतंत्र तत्त्व नहीं मानता था, अपितु पंचमहाभूतों से चेतना की उत्पत्ति बताता था। कारणतावाद में वह असत्कार्यवाद अर्थात् असत् से सत् की उत्पत्ति के सिद्धांत को स्वीकार करता था। शरीर के नाश के साथ आत्मा के विनाश को स्वीकार करता था तथा पुनर्जन्म के सिद्धांत को अस्वीकार करता था। पुनर्जन्म की अस्वीकृति के साथ-साथ वह परलोक अर्थात् स्वर्ग-नरक की सत्ता को भी अस्वीकार करता था। वह पुण्य-पाप अर्थात् शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ फलों को भी अस्वीकार करता था, अतः कर्मसिद्धांत का विरोधी था। उस युग में दार्शनिकों का एक वर्ग अक्रियावाद का समर्थक था। जैनों के अनुसार अक्रियावादी वे दार्शनिक थे, जो आत्मा को अकर्ता और कूटस्थनित्य मानते थे। आत्मवादी होकर भी शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ फल (कर्मसिद्धांत) के निषेधक होने से ये प्रच्छन्न चार्वाकी ही थे। इस प्रकार आचारांग, सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययन में चार्वाकदर्शन के जो उल्लेख हमें उपलब्ध होते हैं, वे मात्र उसकी अवधारणाओं को संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं। उनमें इस दर्शन की मान्यताओं से साधक को विमुख करने के लिए इतना तो अवश्य कहा गया है कि यह विचारधारा समीचीन नहीं है, किंतु इन ग्रंथों में चार्वाकदर्शन की मान्यताओं का प्रस्तुतिकरण और निरसन- दोनों ही न तो तार्किक है और न विस्तृत ही। (170)

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