Book Title: Prakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 201
________________ ही साथ निर्धारित क्षेत्र के बाहर आनयन और प्रेषण को भी दिव्रत का अतिचार माना है। सामान्यतया इनकी चर्चा दिशावकाशिक नामक शिक्षाव्रत में की जाती है। शेष गुणव्रतों की चर्चा में कोई विशिष्ट अंतर नहीं देखा जाता है। शिक्षाव्रतों के अतिचारों का विवेचन भी उन्होंने उपासकदशा की परम्परा के अनुसार ही किया है। अणुव्रतों, गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों के प्रसंग में उन्होंने स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया है कि जहां पांच अणुव्रत और तीन गुणव्रत आजीवन के लिए ग्रहण किए जाते हैं, वहां शिक्षाव्रत निश्चित समय के अथवा दिनों के लिए ही ग्रहण किए जाते हैं। श्रावक के 12 व्रतों की इस चर्चा के पश्चात् उन्होंने संलेखना का उल्लेख तो किया है, किंतु उसे श्रावक का आवश्यक कर्त्तव्य नहीं माना है। अंगविज्जा और नमस्कार मंत्र की विकास यात्रा नमस्कार मंत्र जैन धर्म का आधारभत और सर्वसम्प्रदायमान्य मंत्र है। परम्परात विश्वास तो यही है कि यह मंत्र अनादि-अनिधन है और जैन आगमों का सारतत्त्व एवं आदि स्रोत है। इस मंत्र के संदर्भ में यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है'चउदह पूरब केरो सार समरो सदा मंत्र नवकार' मात्र यही नहीं, नमस्कार महामंत्र का महाश्रुतस्कंध ऐसा नामकरण भी इसी तथ्य का सूचक है। आगमों के अध्ययन के पूर्व प्रारम्भ में इसी का अध्ययन कराया जाना भी यही सूचित करता है कि यह उनका आदि स्रोत है। नमस्कार मंत्र के पांचों पद व्यक्तिवाचक न होकर गुणवाचक हैं। इन गुणों का अस्तित्व अनादि अनिधन है और ऐसे गुणीजनों के प्रति विनय का भाव स्वाभाविक है, अतः इस दृष्टि से नमस्कार मंत्र को अनादि माना जा सकता है, किंतु विद्वानों की मान्यता भिन्न है। उनके अनुसार चूलिका सहित पंचपदात्मक सम्पूर्ण नमस्कार मंत्र का एक क्रमिक विकास हुआ है। प्रस्तुत निबंध में हम अंगविजा और खारवेल के अभिलेख के विशेष संदर्भ में नमस्कार मंत्र की इस विकासयात्रा का अध्ययन करेंगे। - जैन आगम साहित्य के प्राचीन ग्रंथ आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, दशवकालिक आदि में नमस्कारमंत्र का कोई भी (197)

Loading...

Page Navigation
1 ... 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212