Book Title: Prakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 208
________________ अंगविजा में मिलते हैं। ज्ञातव्य है कि यहां 'सिद्ध' पद का अर्थ वह नहीं है जो अर्थ पंचपदात्मक नमस्कारमंत्र में है। यहां सिद्ध का तात्पर्य चारणविद्या सिद्ध अथवा तप-सिद्ध है, न कि मुक्त-आत्मा। नमस्कारमंत्र के प्रारम्भ में 'नमो' में दन्त्य 'न' का प्रयोग हो या मूर्धन्य 'ण' का प्रयोग हो इसे लेकर विवाद की स्थिति बनी हुई है। जहां श्वेताम्बर परम्परा के ग्रंथों में 'नमो' और 'णमो' दोनों ही रूप मिलते हैं, वहां दिगम्बर परम्परा में णमो' ऐसा एक ही प्रयोग मिलता है। अब अभिलेखीय आधारों पर विशेष रूप से खारवेल के हत्थीगुम्फा अभिलेख और मथुरा के जैन अभिलेखों के अध्ययन से सुस्पष्ट हो चुका है कि 'नमो' पद का प्रयोग ही प्राचीन है और उसके स्थान पर णमो' पद का प्रयोग परवर्ती है। वस्तुतः शौरसेनी प्राकृत और महाराष्ट्री प्राकृत के व्याकरण के नोणः' सूत्र के आधार पर परवर्ती काल के दन्त्य 'न' के स्थान पर मूर्धन्य 'ण' का प्रयोग होने लगा। इस सम्बंध में अंगविज्जा की क्या स्थिति है? यह भी जानना आवश्यक है। मुनि श्री पुण्यविजय जी ने अपने द्वारा सम्पादित अंगविज्जा में नमस्कारमंत्र के प्रसंग में 'नमो' के स्थान पर णमो' का ही प्रयोग किया है, किंतु मूल में ‘णमो' शब्द का प्रयोग स्वीकार करने पर हमें अंगविज्जा की भाषा की प्राचीनता पर संदेह उत्पन्न हो सकता है, क्योंकि प्राचीन अर्धमागधी में सामान्यतः ‘नमो' शब्द का प्रयोग हुआ है। इस संदर्भ में मैंने मुनि श्री पुण्यविजय जी के सम्पादन में आधारभूत रही हस्तप्रतों के चित्रों का अवलोकन किया। यद्यपि उनके द्वारा प्रयुक्त हस्तप्रतों में 'नमो' और ‘णमो' दोनों ही रूप उपलब्ध होते हैं। जहां कागज की दो हस्तप्रतों में 'नमो' पाठ है, वहां कागज के एक हस्तप्रत में णमो' पाठ है। इसी प्रकार सम्पादन में प्रयुक्त ताडपत्रीय दो प्रतों में से जैसलमेर की प्रति (१४वीं शती) में 'नमो' पाठ है। लेकिन परवर्ती खम्भात में लिखी गई (१५वीं शती के उत्तरार्ध 1481 में लिखी गई निजी संग्रह) प्रति में 'णमो' पाठ है। मात्र यही नहीं कागज की उनके स्व संग्रह की जिस प्रति में 'णमो' पाठ मिला है उसमें भी प्रथम चार पदों में ही 'णमो' पाठ है। पंचम पद में 'नमो' पाठ ही है। यही नहीं आगे लब्धिपदों के साथ भी 'नमो' पाठ है। होना तो यह था कि सम्पादन करते समय उन्हें 'नमो' यह प्राचीन प्रतियों का पाठ लेना चाहिए था, किंतु ऐसा लगता है कि मुनि श्री ने भी हेमचंद्र-व्याकरण के 'नो णः सूत्र को आधार मानकर 'नमो' के स्थान पर णमो' को ही व्याकरणं सम्मत स्वीकार किया है। आश्चर्य है कि मुनिश्री ने अंगविज्जा की प्रस्तावना में ग्रंथ की (204

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