Book Title: Prakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 205
________________ इसी संदर्भ में सर्वप्रथम लगभग ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी का एक अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त होता है, जिसमें द्विपदात्मक नमस्कारमंत्र का निर्देश है। भुवनेश्वर (उड़ीसा) के खारवेल के हत्थीगुम्फा अभिलेख (ई.पू. दूसरी शताब्दी) में हमें निम्न दो पद मिलते हैं- 1. 'नमो अरहंतानं', 2. 'नमो सव्व सिद्धानं'। इस प्रकार द्विपदात्मक नमस्कारमंत्र का ई.पू. का अभिलेखीय साक्ष्य तो मिला, किंतु किसी साहित्यिक साक्ष्य से इसकी पुष्टि नहीं हो पा रही थी। मात्र इतना ही नहीं, इसमें 'सिद्धाणं' के साथ जो 'सव्व' विशेषण जुड़ा हुआ है, उसकी भी किसी साहित्यिक साक्ष्य से कोई पुष्टि नहीं हो पा रही थी। संयोग से जब मैं अपनी पुस्तक 'जैन धर्म और तांत्रिक साधना का जैन धर्म और मंत्र साधना' नामक अध्याय लिख रहा था, तो जैन मंत्रों के प्रारम्भिक स्रोतों को खोजने हेतु अंगविजा का अध्ययन कर रहा था तो मुझे उसमें न केवल द्विपदात्मक नमस्कारमंत्र प्राप्त हुआ, अपितु उसमें 'सव्व' विशेषण युक्त 'सिद्धाणं' पद भी प्राप्त हुआ। इस प्रकार हमें खारवेल के अभिलेख के द्विपदात्मक नमस्कारमंत्र का सम्पूर्ण साहित्यिक साक्ष्य अंगविजा में प्राप्त हुआ। साथ ही यह भी ज्ञात हुआ कि द्विपदात्मक इस नमस्कारमंत्र के अभिलेखीय एवं साहित्यिक साक्ष्य समकालिक भी हैं। पुण्यविजय जी म.सा. द्वारा सम्पादित इस अंगविजा की 'भूमिका' में डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने अंगविजा को कुषाणकाल अर्थात् ईसा की प्रथम शती की रचना माना है। खारवेल का अभिलेख इससे लगभग 150 वर्ष पूर्व का होगा। इस प्रकार अंगविजा, से खारवेल के अभिलेख से किंचित् परवर्ती है। यही कारण है कि अंगविजा में नमस्कारमंत्र के एक पदात्मक, द्विपदात्मक, त्रिपदात्मक एवं पंचपदात्मक चारों ही रूप देखने को मिलते हैं, किंतु अंगविज्जा में हमें नमस्कारमंत्र की चूलिका (एसो पंच नमोक्कारो सव्वपावप्पणासणो मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं) का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। अतः हम कह सकते हैं कि नमस्कारमंत्र की चूलिका एक * परवर्ती रचना है। इसका सर्वप्रथम निर्देश आवश्यक नियुक्ति में उपलब्ध होता है। यदि आवश्यक नियुक्ति को मेरी मान्यता के अनुसार आर्यभद्र की रचना माना जाए तो उसका काल ईसा की दूसरी शताब्दी के लगभग स्थापित होता है। इस समग्र चर्चा से इतना अवश्य फलित होता है कि पंचपदात्मक नमस्कारमंत्र का विकास ईसा की प्रथम शताब्दी में आए वज्र के समय में हो चुका था। उसमें (201)

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