Book Title: Prakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 199
________________ का निर्देश किया है, किंतु प्रस्तुत प्रसंग में उन्होंने विचिकित्सा का एक नया अर्थ किया है। विचिकित्सा के संदर्भ में आचार्य ने श्रद्धाहीन श्रावक और विद्या की साधना करने वाले श्रद्धावान् चोर का उदाहरण तथा प्रत्यन्तवासी अर्थात् सीमान्त प्रदेशवासी श्रावक पुत्री की कथा का निर्देश भी किया है। अमूढदृष्टि दर्शनाचार का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने बताया है कि इतर धर्मावलम्बियों की विभिन्न प्रकार की साधना विधियों के प्रति आकर्षित एवं उनके पूजा, सत्कार आदि को देखकर भ्रांत न होना ही अमूढदृष्टि है। विशिष्ट तप करने वाले, वृद्ध, ग्लान, रोगी, शैक्ष आदि की सेवा शुश्रुषा करने वाले विनयवान एवं स्वाध्यायी मुनियों की प्रशंसा करना उपब्रहन है। इसी प्रकार धर्म मार्ग से च्युत होते हुए व्यक्तियों को पुनः धर्म मार्ग में स्थिर करना स्थरीकरण है। वस्तुतः यह धर्म साधना के क्षेत्र में खिन्न हुए व्यक्तियों को प्रोत्साहित कर उन्हें साधना में प्रतिष्ठित करना है। स्वधर्मीवात्सल्य को स्पष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि स्वधर्मी जनों के प्रति वात्सल्य या अनुराग रखना, कष्ट के समय उनकी सहायता करना स्वधर्मीवात्सल्य है। आचार्य ने अमूढदृष्टि के प्रसंग में सुलसा श्राविका की, उपब्रहन के संदर्भ में राजा श्रेणिक की, स्थरीकरण में आषाढ़ाचार्य की और वात्सल्य के प्रसंग में वज्रस्वामी की कथाओं का निर्देश किया है। __ अंतिम प्रभावना अंग की चर्चा करते हुए वे कहते हैं कि विभिन्न प्रकार लब्धियों (ऋद्धियों), विविध प्रकार की विधाओं (तंत्र-मंत्र आदि), अष्टांगज्योतिष, निमित्तशास्त्र आदि में पारंगत होकर उनके माध्यम से जिनशासन की प्रभावना करना सम्यक्-दर्शन का प्रभावना अंग है। . . आचार्य ने यहां यह भी बताया है कि सम्यक्त्व का बोध होने पर भी व्रत प्रतिपत्ति अर्थात् अणुव्रतों आदि को ग्रहण करने की भावना वैकल्पिक हो सकती है, किंतु ऐसे व्यक्ति को भी सेवा एवं स्वाध्याय आदि तो नियम से करना ही चाहिए। आचार्य यह भी मानते हैं कि एक बार सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाने पर संसार समुद्र को पार करने के लिए नौका के समान व्रत आदि कालांतर में अवश्य ही प्राप्त होते हैं। सम्यक्त्व की चर्चा के उपरांत प्रस्तुत कृति में पांच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों की चर्चा की गई है। इस संदर्भ में आचार्य हरिभद्र ने तत्त्वार्थसूत्र का अनुसरण न करके उपासकदशा के क्रम का अनुकरण किया है। मात्र अंतर यह है कि जहां उपासकदशा में अणुव्रत एवं शिक्षाव्रत ऐसा

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