Book Title: Prakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 202
________________ निर्देश हमें उपलब्ध नहीं होता है। यद्यपि दशवकालिकसूत्र में आर्य शय्यम्भव ने यह निर्देश किया है, कायोत्सर्ग को नमस्कार से पूर्ण करना चाहिए, किंतु इससे यह स्पष्ट नहीं होता है कि यह नमस्कार पंचपदात्मक होता था। सामायिक सूत्र में कायोत्सर्ग के आगार सूत्र में यह पाठ आता है कि 'अरहंताणं, भगवंताणं, नमुक्कारेणं न पारेमि' अर्थात् इसे अरहंताणं से इसे पूर्ण करूंगा। वर्तमान परम्परा से इसकी पुष्टि भी होती है, फिर भी नमस्कार से तात्पर्य पंचपदात्मक नमस्कारमंत्र से रहा होगा यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। पंचपदात्मक नमस्कारमंत्र के निर्देश जिन आगमों में उपलब्ध होते हैं, उनमें अंग आगमों में भगवतीसूत्र के अतिरिक्त अन्य किसी भी अंग आगम ग्रंथ में नमस्कार मंत्र का निर्देश नहीं है। अंगबाह्य आगमों में प्रज्ञापनासूत्र के प्रारम्भ में भी नमस्कार मंत्र उपलब्ध होता है। प्रज्ञापना के अतिरिक्त महानिशीथ के प्रारम्भ में भी नमस्कार मंत्र का निर्देशन मिलता है। (ॐ नमो तित्थस्स। ॐ नमो अरहंताणं।)२ भगवतीसूत्र एवं प्रज्ञापना के प्रारम्भ में पंचपदात्मक नमस्कारमंत्र का निर्देश तो है, किंतु यह उनका अंगीभूत अंश है अथवा प्रक्षिप्त अंश है, इसको लेकर विद्वानों में मतवैभिन्न देखा जाता है। कुछ विद्वानों का कहना है कि प्रज्ञापना के टीकाकार मलयगिरि इसकी कोई टीका नहीं करते हैं, इसलिए यह मंत्र उसका अंगीभूत मंत्र नहीं है। इसे बाद में मंगल सूचक आदि वाक्य के रूप में जोड़ा गया है, अतः प्रक्षिप्त अंश है। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि यद्यपि भगवतीसूत्र के प्रारम्भ में पंचपदात्मक नमस्कारमंत्र तो मिलता है, किंतु उसकी चूलिका नहीं मिलती है, उसके स्थान पर 'नमो बंभी-लिविए' यह पद मिलता है। अतः यह कल्पना की जा सकती है कि ब्रह्मीलिपि के प्रति यह नमस्कारात्मकपद तभी उसमें जोड़ा गया होगा, जब इस ग्रंथ को सर्वप्रथम लिपिबद्ध किया गया होगा। भगवतीसूत्र के पश्चात् प्रज्ञापनासूत्र में भी पंचपदात्मक नमस्कारमंत्र उपलब्ध होता है, किंतु प्रज्ञापनासूत्र निश्चित ही ईसा की प्रथम शताब्दी के लगभग निर्मित हुआ है। अतः इस आधार पर केवल इतना ही कहा जा सकता है कि ईसा की प्रथम शताब्दी तक पंचपदात्मक नमस्कारमंत्र का विकास हो चुका था। जहां तक महानिशीथ का प्रश्न है, यह स्पष्ट है कि उसकी मूलप्रति दीमकों से भक्षित हो जाने पर आचार्य हरिभद्र ने ही इस ग्रंथ का पुनरोद्धार किया। हरिभद्र का काल स्पष्ट रूप से लगभग ईसा की ७वीं-८वीं शताब्दी माना जाता है। अतः (198)

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