Book Title: Prakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 192
________________ इसी प्रकार, इस ग्रंथ के साठवें अध्याय में भी मंत्रसाधना सम्बंधी निर्देश उपलब्ध हैं, जिसमें यह बताया गया है कि निर्दिष्ट मंत्रसाधना से विद्या स्वयं उपस्थित हो करके कहती है कि मैं कहां प्रवेश करूं, निर्देशानुसार प्रविष्ट होकर वह प्रश्नों का उत्तर देती है। ग्रंथकार ने यहां सबसे अधिक मनोरंजक बात यह भी लिखी है कि विद्या सिद्ध हो जाने पर जिन प्रश्नों का उत्तर देती है, उनमें 16 में से / एक प्रश्न के उत्तर में भ्रांति हो सकती है, फिर भी ऐसा सिद्ध-साधक अपनी इस शक्ति के कारण अजिन होकर भी जिन के सदृश आभासित होता है। इस संदर्भ में ग्रंथ का निम्न अंश विशेष रूप से द्रष्टव्य है _ 'सिद्धं खीरिणि! खीरिणि! उदंबरि! स्वाहा, सव्वकामदये! स्वाहा, सव्वणाणसिद्धिकरि! स्वाहा 1! तिण्णि छट्ठाणि, मासं दुद्धोदणेणं उदुंबरस्स हेट्ठा दिवा विजामधीये, अपच्छिमे छट्टे ततो विजाओ य पवत्तंते रूवेण य दिस्सते, भणति-कतो ते पविसामि? तं जहा ते पविसामि तं ते अणंगं काहामीति। पविसित्ता य भणति-सोलस वाकरणाणि वा णाहिसि एक्कं चुक्किहिसि। एवं भणित्तु पविसति सिद्धा भवति। . __ णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो सव्वसाधूणं, णमो भगवती महापुरिसदिण्णाय अंगविजाय, आकरणी वाकरणी लोकवेयाकरणी धरणितले सुप्पतिहिते आदिच्च-चंद-णक्खत्त-गहगण-तारारूवाणं सिद्धकतेणं अत्थकतेणं धम्मकतेणं सव्वलोकसुबुहेणं जे अठे सव्वे भूते भविस्से से अढे इध दिस्सतु पसिणम्मि स्वाहा 2 / एसा आभोयणीविजा आधारणी छठग्गहणी, आधरपविसंतेण अप्पा अभिमंतइतव्वो, आकरणि वाकरणि पविसित्तु मंते जवति पुस्सयोगे, चउत्थमत्तेणमेव दिस्सति। णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो भगवतो यसंवतो महापुरिसस्स, णमो भगवतीय सहस्सपरिवाराय अंगविजाए, इमं विजं पयोयेस्सामि, सा मे विजा पसिज्झतु, खीर्रिण! उंदुबरि! स्वाहा, सर्वकामदये! स्वाहा, सर्वज्ञानसिद्धिरिति स्वाहा 3 // उपचारो-मासं दुद्धोदणेण उदंबरस्स हेट्ठा दिवसं विजामधीये, अपच्छिमे छठे कातव्वे ततो विजा ओवयति त्ति रूवेण दिस्सति, भणति य-कतो ते पविसामि?, जतो य ते पविस्सिस्सं तीय अणंणं काहामि। पविसित्ता य भणती-सोलस वाकरणाणि वाकरेहिसि, ततो पुण एकं चुक्किहिसि, वाकरणाणि पण्णरस अच्छिड्डाणि भासिहिसि, ततो अजिणो जिणसंकासो

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