Book Title: Prakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 177
________________ इनकी मान्यता को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि सत् का विनाश नहीं होता और असत् की उत्पत्ति नहीं होती। इतना ही जीवकाय है, इतना ही अस्तिकाय है और इतना ही समग्र लोक हैं। पंचमहाभूत ही लोक का कारण हैं। संसार में तृण-कम्पन से लेकर जो कुछ होता है, वह सब इन पांच महाभूतों से होता है। आत्मा के असत् अथवा अकर्ता होने से हिंसा आदि कार्यों में पुरुष दोष का भागी नहीं होता, क्योंकि सभी कार्य भूतों के हैं, सम्भवतः यह विचारधारा सांख्यदर्शन का पूर्ववर्ती रूप हैं। इसमें पंचमहाभूतवादियों की दृष्टि से आत्मा को असत् माना गया है तथा पंचमहाभूत एवं षष्ठ आत्मा को मानने वालों की दृष्टि से आत्मा को अकर्ता कहा गया है। सूत्रकृतांग इनके अतिरिक्त ईश्वरकारणवादी और नियतिवादी जीवनदृष्टियों को भी कर्मसिद्धांत का विरोधी होने के कारण मिथ्यात्व का प्रतिपादक ही मानता है। इस प्रकार, ऋषिभाषित के देशोत्कल को सूत्रकृतांग के पंचमहाभूत एवं षष्ठ आत्मवादियों के उपर्युक्त विवरण में पर्याप्त रूप से निकटता देखी जा सकती है। जैनों की मान्यता यह थी कि वे सभी विचारक मिथ्यादृष्टि हैं, जिनकी दार्शनिक मान्यताओं में धर्माधर्मव्यवस्था या कर्मसिद्धांत की अवधारणा स्पष्ट नहीं होती। हम यहां यह देखते हैं कि इन दार्शनिक मान्यताओं में देह-आत्मवाद की स्थापना करते हुए देह और आत्मा भिन्न-भिन्न हैं, इस मान्यता का तार्किक रूप से निरसन किया गया है, किंतु यह मान्यता क्यों समुचित नहीं है? इस सम्बंध में स्पष्ट रूप से कोई भी तर्क नहीं दिए गए हैं। सूत्रकृतांग देहात्मवाद के समर्थन में तो तर्क देता है, किंतु उसके निरसन में कोई तर्क नहीं देता है। यहां हमने आचारांग, सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययन की अपेक्षा से चार्वाकदर्शन की चर्चा की है। ऋषिभाषित और राजप्रश्नीय की अपेक्षा से चार्वाकदर्शन की समीक्षा निम्नानुसार है। ऋषिभाषित में प्रस्तुत चार्वाकदर्शन प्राचीन जैन आगमों में चार्वाकदर्शन की तार्किक प्रतिस्थापना और तार्किक समीक्षा हमें सर्वप्रथम ऋषिभाषित (ई.पू. चौथी शती) में ही मिलती है। उसके पश्चात् सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कंध (ई.पू. प्रथम शती) में तथा राजप्रश्नीय (ई.पू. प्रथम शती)में मिलती है। ऋषिभाषित का बीसवां 'उक्कल' नामक सम्पूर्ण अध्ययन ही चार्वाकदर्शन की मान्यताओं के तार्किक प्रस्तुतिकरण से युक्त है। चार्वाकदर्शन के तजीवतच्छरीरवाद का प्रस्तुतिकरण इस ग्रंथ में (173)

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