Book Title: Prakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 180
________________ स्तेनोक्कल - - ऋषिभाषित के अनुसार स्तेनोक्कल भौतिकवादी अन्य शास्त्रों के दृष्टांतों को लेकर उनकी स्वपक्ष में उद्भावना करके यह मानते थे कि हमारा भी यही कथन है। इस प्रकार ये दूसरों के सिद्धांतों का उच्छेद करते हैं। परपक्ष के दृष्टांतों का स्वपक्ष में प्रयोग का तात्पर्य सम्भवतः वाद-विवाद में 'छल' का प्रयोग हो। सम्भवतः, स्तेनोक्कल या तो नैयायिकों का कोई पूर्व रूप रहे हो, या संजयवेलट्ठी-पुत्र के सिद्धांत का यह प्राचीन कोई विधायक रूप था, जो सम्भवतः आगे चलकर अनेकांतवाद का आधार बना हो। ज्ञातव्य है कि ऋषिभाषित में देहात्मवादियों के तर्कों से मुक्ति की प्रक्रिया का प्रतिपादन किया है। देशोकल - __ऋषिभाषित में, जो आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करके भी जीव को अकर्ता मानते थे, उन्हें देशोकल कहा गया है। आत्मा को अकर्ता मानने पर पुण्य-पाप, बंधन-मोक्ष की व्यवस्था नहीं बन पाती हैं, इसलिए इस प्रकार के विचारकों को भी आंशिक रूप से उच्छेदवादी ही कहा गया है। क्योंकि पुण्यपाप, बंधन-मोक्ष आदि का निरसन करने के कारण ये भी कर्मसिद्धांत, नैतिकता * एवं धर्म के अपलापक ही थे, अतः इन्हें भी इसी वर्ग में समाहित किया गया था। सम्भवतः, ऋषिभाषित ही एक ऐसा ग्रंथ है, जो आत्म अकर्तावादियों को उच्छेदवादी कहता है। वस्तुतः, ये सांख्य और औपनिषदिक-वेदांत के ही पूर्व रूप थे। जैन उन्हें उत्कूल या उच्छेदवादी इसलिए मानते थे कि इन मान्यताओं से लोकवाद (लोक की यथार्थता), कर्मवाद (कर्मसिद्धांत) और आत्मकर्त्तावाद (क्रियावाद) का खण्डन होता है। सव्वुक्कल - सर्वोत्कूल सर्वदा अभाव से ही उत्पत्ति बताते थे। ऐसा कोई भी तत्त्व नहीं है, जो सर्वथा सर्व प्रकार से सर्वकाल से रहता हो, इस प्रकार ये सर्वोच्छेदवाद की संस्थापना करते थे। दूसरे शब्दों में, जो लोग समस्त सृष्टि के पीछे किसी नित्य तत्त्व को स्वीकार नहीं करते थे और अभाव से ही सृष्टि की उत्पत्ति मानते थे, वे कहते थे कि कोई भी तत्त्व ऐसा नहीं है, जो सर्वथा और सर्वकालों में अस्तित्व रखता हो। संसार के मूल में किसी भी सत्ता को अस्वीकार करने के

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