Book Title: Prakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 188
________________ का ज्ञान होना सम्भव है। 30 पटलों में विभक्त आठवें अध्याय में आसनों के अनेक भेद बताए गए हैं। नौवें अध्याय में 1868 गाथाएं हैं, जिनमें 270 विषयों का निरूपण है। इन विषयों में अनेक प्रकार की शय्या, आसन, यान, कुडय, स्तम्भ, वृक्ष, वस्त्र, आभूषण, बर्तन, सिक्के आदि का वर्णन है। ग्यारहवें अध्याय में स्थापत्य सम्बंधी विषयों का महत्त्वपूर्ण वर्णन करते हुए तत्सम्बंधी शब्दों की विस्तृत सूची दी गई है। उन्नीसवें अध्याय में राजोपजीवी शिल्पी और उनके उपकरणों के सम्बंध में उल्लेख हैं। इक्कीसवां अध्याय विजयद्वार नामक है, जिसमें जय-पराजय सम्बंधी कथन हैं। बाईसवें अध्याय में उत्तम फलों की सूची दी गई है। पच्चीसवें अध्याय में गोत्रों का विस्तृत उल्लेख है। छब्बीसवें अध्याय में नामों का वर्णन है। सत्ताईसवें अध्याय में राजा, मंत्री, नायक, भाण्डागारिक, आसनस्थ, महानसिक, गजाध्यक्ष आदि राजकीय अधिकारियों के पदों की सूची है। अट्ठाईसवें अध्याय में उद्योगी लोगों की महत्त्वपूर्ण सूची है। उनतीसवां अध्याय नगरविजय नाम का है, इसमें प्राचीन भारतीय नगरों के सम्बंध में बहुत-सी बातों का वर्णन है। तीसवें अध्याय में आभूषणों का वर्णन है। बत्तीसवें अध्याय में धान्यों के नाम हैं। तैंतीसवें अध्याय में वाहनों के नाम दिए गए हैं। छत्तीसवें अध्याय में दोहद सम्बंधी विचार हैं। सैंतीसवें अध्याय में 12 प्रकार के लक्षणों का प्रतिपादन किया गया है। चालीसवें अध्याय में भोजनविषयक वर्णन है। इकतालीसवें अध्याय में मूर्तियां, उनके प्रकार, आभूषण और अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं का वर्णन है। तैंतालीसवें अध्याय में यात्रा सम्बंधी वर्णन है। छियालीसवें अध्याय में गृहप्रवेश सम्बंधी शुभ-अशुभ फलों का वर्णन है। सैंतालीसवें अध्याय में राजाओं की सैन्ययात्रा सम्बंधी शुभाशुभ फलों का वर्णन है। चौवनवें अध्याय में सार और असार वस्तुओं का विचार है। पचपनवें अध्याय में जमीन में गड़ी हुई धनराशि की खोज करने के सम्बंध में विचार हैं। अट्ठावनवें अध्याय में जैनधर्म में निर्दिष्ट जीव और अजीव का विस्तार से वर्णन किया गया है। साठवें अध्याय में पूर्वभव जानने की विधि सुझाई गई है। अंगविजा की उपर्युक्त विषयवस्तु उसके सांस्कृतिक सूचनात्मक पक्ष को सूचित करती है, किंतु लेखक का मूल उद्देश्य इन सबके आधार पर विभिन्न प्रकार के फलादेश करना ही था, किंतु लेखक इतने मात्र से संतुष्ट नहीं होता है, वह अशुभ फलों के निराकरण एवं वांछित फलों की प्राप्ति के लिए विभिन्न (184)

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