Book Title: Prakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 175
________________ सूत्रकृतांग (द्वितीय श्रुतस्कंध) में चार्वाकदर्शन का प्रस्तुतिकरण एवं समीक्षा१४ * चार्वाकों अथवा तजीवतच्छरीरवादियों के पक्ष का तार्किक दृष्टि से प्रस्तुतिकरण और उसकी तार्किक समीक्षा का प्रयत्न जैन आगम साहित्य में सर्वप्रथम सूत्रकृतांग के द्वितीय पौण्डरिक नामक अध्ययन में और उसके पश्चात्, राजप्रश्नीयसूत्र में उपलब्ध होता है। अब हम सूत्रकृतांग द्वितीय श्रुतस्कंध के आधार पर तज्जीवतच्छरीरवादियों के पक्ष का प्रस्तुतिकरण करेंगे और उसकी समीक्षा प्रस्तुत करेंगे। ___ तजीवतच्छरीरवादी यह प्रतिपादित करते हैं कि पादतल से ऊपर मस्तक के केशों के अग्रभाग से नीचे तक तथा समस्त त्वक्पर्यन्त जो शरीर है, वही जीव है। इस शरीर के जीवित रहने तक ही यह जीव जीवित रहता है और शरीर के नष्ट हो जाने पर नष्ट हो जाता है, इसलिए शरीर के अस्तित्व-पर्यन्त ही जीवन का अस्तित्व है। इस सिद्धांत को युक्ति-युक्त समझना चाहिए, क्योंकि जो लोग युक्तिपूर्वक यह प्रतिपादित करते हैं कि शरीर अन्य है और जीव अन्य है, वे जीव और शरीर को पृथक्-पृथक् करके नहीं दिखा सकते। वे यह भी नहीं बता सकते कि आत्मा दीर्घ है या हस्व है, अथवा वह भारी है, हल्का है, स्निग्ध है या रुक्ष है। अतः, जो लोग जीव और शरीर को भिन्न नहीं मानते, उनका ही मत युक्तिसंगत हैं', क्योंकि जीव और शरीर को निम्नोक्त पदार्थों की तरह पृथक् - पृथक् करके नहीं दिखाया जा सकता, यथा१. तलवार और म्यान की तरह, 2. मुंज और इषिका की तरह, 3. मांस और हड्डी की तरह, 4. हथेली और आंवले की तरह, 5. दही और मक्खन की तरह, 6. तिल की खली और तेल की तरह, 7. ईख और उसके छिलके की तरह, 8. अरणि की लकड़ी और आग की तरह। - इस प्रकार, जैनागमों में प्रस्तुत ग्रंथ में ही सर्वप्रथम देहात्मवादियों के दृष्टिकोण को तार्किक रूप से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। पुनः, उनकी

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