Book Title: Prakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 157
________________ पाठ किया। इस प्रकार, अर्हन्त और सिद्ध भगवान् की स्तुति करके फिर जिनमंदिर के मध्य भाग में आए। उसे प्रमार्जित कर दिव्य जलधारा से सिंचित किया और गोशीर्ष नंदन का लेप किया तथा पुष्पसमूहों की वर्षा की। तत्पश्चात् उसी प्रकार उन्होंने मयूरपिच्छि से द्वारशाखाओं, पुतलियों एवं व्यालों को प्रमार्जित किया तथा उनका प्रक्षालन कर उनको चंदन से अर्चित किया तथा धूपक्षेप करके पुष्प एवं आभूषण चढ़ाए। इसी प्रकार, उन्होंने मणिपीठिकाओं एवं उनकी जिनप्रतिमाओं की, चैत्यवृक्ष की तथा महेंद्र ध्वजा की पूजा-अर्चना की। इससे स्पष्ट है कि राजप्रश्नीय के काल में पूजा सम्बंधी मंत्रों के अतिरिक्त जिनपूजा की एक सुव्यवस्थित प्रक्रिया निर्मित हो चुकी थी। लगभग ऐसा ही विवरण वरांगचरित के २३वें सर्ग में भी है। यह स्पष्ट है कि जिनपूजा का यह विकसित स्वरूप गुप्तकालीन है और भक्तिमार्ग के विकास के साथ जैनधर्म में प्रविष्ट हुआ है। इस पर हिन्दूधर्म की पूजा-पद्धति का पूर्ण प्रभाव है, जिसकी चर्चा मैंने अपनी पुस्तक 'जैनधर्म और तांत्रिक साधना' में की है। हम यह भी बता चुके हैं कि राजप्रश्नीयसूत्र का यह भाग परवर्ती प्रक्षेप है। मूल भाग केवल राजा पएसी और केशीकुमार श्रमण की चर्चा तक ही सीमित था। पुनर्जन्म एवं परलोक के निषेध कीराजप्रश्नीयसूत्र में समीक्षा जैन आगमों में पुनर्जन्म एवं परलोक के निषेधक देहात्मवादी दृष्टिकोण के पक्ष और विपक्ष में तर्क प्रस्तुत करने वाला सर्वप्रथम राजप्रश्नीयसूत्र है। यही एकमात्र ऐसा प्राकृत आगम ग्रंथ है, जो उच्छेदवाद और तजीवतच्छरीरवाद के पक्ष और प्रतिपक्ष- दोनों के संदर्भ में अपने तर्क प्रस्तुत करता है। राजप्रश्नीय में देहात्मवाद के पूर्व पक्ष को और उनका खण्डन करने वाले उत्तर पक्ष को निम्न रूप में प्रस्तुत किया गया है. राजा पएसी कहता है- हे केशीकुमार श्रमण ! मेरे दादा अत्यंत अधार्मिक थे। आपके कथनानुसार वे अवश्य ही नरक में उत्पन्न हुए होंगे। मैं अपने पितामह को अत्यंत प्रिय था, अत: मेरे पितामह को आकर मुझसे यह कहना चाहिए कि हे पौत्र ! मैं तुम्हारा पितामह था और इसी सेयंविया (श्वेताम्बिका) नगरी में अधार्मिक कृत्य करता था, यावत् प्रजाजनों से राजकर लेकर भी यथोचित रूप (153)

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