Book Title: Prakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 163
________________ समुद्रविजय से अरिष्टनेमि का जन्म हुआ, वहीं वसुदेव के कृष्ण और बलराम नामक पुत्र हुए। हिन्दू परम्परा के हरिवंशपुराण के तैतीसवें अध्याय में भी यदुवंश की उत्पत्ति का तथा चौतीसवें अध्याय में वृष्णिवंश का उल्लेख मिलता है। दोनों परम्पराओं के आधार पर इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि अन्धकवृष्णि से ही वृष्णिवंश का प्रारम्भ हुआ। प्रस्तुत उपांग वृष्णिदशा में हमें वृष्णिवंश के निम्न बारह राजकुमारों का उल्लेख मिलता है- 1. निषथ, 2. मातलि, 3. वह, 4 वहे, 5 यगया, 6. युक्ति, 7. दशरथ, 8. दृढ़रथ, 9. महधन्वा, 10. सप्तधन्वा, 11. दशधन्वा, 12. शतधन्वा।। - वृष्णिदशा में निषध आदि जिन बारह बालकों का उल्लेख है, उन्हें कृष्ण के बड़े भ्राता बलराम की रानी रेवती का पुत्र बताया गया है। यहां दो तीन बातें विशेष रूप से विचारणीय हैं- प्रथम तो यह कि वृष्णिदशा के नाम से ऐसा लगता है कि यह दस अध्यायों का कोई ग्रंथ है, किंतु वर्तमान में इसमें बारह अध्याय पाए जाते हैं। इस ग्रंथ में जो बारह अध्यायों के नाम उल्लेखित किए गए हैं, उनमें मात्र प्रथम अध्याय का ही विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है, शेष अध्याय का विवरण न देकर मात्र यह कह दिया गया है कि शेष ग्यारह अध्यायों का वर्णन प्रथम अध्याय के समान ही जान लेना चाहिए। इस आधार पर यहां यह विचार उत्पन्न होता है कि क्या शेष राजकुमार भी कृष्ण के बड़े भ्राता बलदेव की रानी रेवती के ही पुत्र थे? किंतु मूल ग्रंथ में इस सम्बंध में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं मिलता है, फिर भी इतना तो निश्चित है कि ये सभी राजकुमार वृष्णिवंश से सम्बंधित रहे हैं। / जहां तक वृष्णिदशा नामक इस बारहवें उपांगसूत्र की विषय-वस्तु का प्रश्न है, मूल ग्रंथ में सर्वप्रथम द्वारिका नगरी का वर्णन किया गया है। उसके पश्चात् रैवतक पर्वत तथा उसकी तलहटी में स्थित नंदनवन का उल्लेख हुआ है। यह सभी विवरण अन्तकृत्दशा नामक अष्टम अंगसूत्र के समान ही है, इसमें कोई नवीनता या भिन्नता परिलक्षित नहीं होती है। तदनन्तर इस नंदनवन उद्यान में अरिष्टनेमि के आगमन का उल्लेख है। फिर कृष्ण वासुदेव द्वारा निषधकुमार आदि अपने परिवार के साथ अरिष्टनेमि भगवान् के दर्शनार्थ जाने का उल्लेख है। विषधकुमार को देखकर वरदत्त मुनि के मन में जिज्ञासा उत्पन्न होती है। अरिष्टनेमि वरदत्त अणगार की इस जिज्ञासा को शांत करते हुए सर्वप्रथम निषधकुमार के (159)

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